मान पद्य संग्रह अथवा व्यावहारिक आत्म-ज्ञान भाग - 3 | Maan Pady Sangrah Or Vyavahaarik Aatam Gyan Part - 3
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
135
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मान पद्य-संग्रह ४
अ्यू खर रे। में तो पोधी प्रेम री बाची; पोंच्यो परे सू' पर रै॥२॥ सब
चसुपैव कुटुम्त् हे मेरो, मेरा घाम सदर रे । मेरो ही हुकम सभी पर चाल,
मुझ पर किणरो उजञ९ रे ॥ ३ ॥ गोरख कबीर घणी ही भाजी; राखी नादी
कसर रे | थोरे मघ किताई वरसो; पण पत्थर न होवें तर रे ॥ ४ ॥ मूप
भरथरी भूल न राखी; जिए भाखी शब्द समर रे | मारया तीर ताक कर
तेन, पण हृदय भयो बजर रे ॥ ५ ॥ मान बड़े में कूड ना भालू; कई
निष्पक्ष निडर रे । अबकी कट्दी सम्तो नहीं मानों; तो हो थे पशु नहीं मर
रे॥६॥
राग सारग मल्दार, तजं माणी की । वाल दीपचन्दी ॥|
हीरा चण मू कदु इरे, घण री चोट चढावे हा ।
योँसाधू मन नाडरेर्दोहो, ले शब्द परलवे जी।दिर्
बिना परल भिना गुरु किस, जात तिन क्या चेला कौ!
अम्ध अन्घ की संग में हा हाँ, सब जल कूप गिरेला जी ।
विन पाएख गुरु नहीं कीजिए, ग्रंथ में साख सुणाने हाँ।
हीण घण संं० ॥९॥
हँस जिके तो हंस है, थुग रया भोतियों झा चाय हां।
सीर पीये पानी धोद दीदयो; वे हस लागे प्यारा जी।
हस समान ये हरिजन, जग मे नदीं श्रलुमाषे হী?
हीरा घण सूं०॥२॥
कनक कामिनी खोदी कटे योने कायर जाणों हाँ।
सन ज्यांरो माने नदीं हाँ दा, अवर ने रोष गणो जी।
साधू जिके तो না, জন্তু भद जावे हॉ।
हीरा घण सू०।२॥
देवनाथ शुरु मन जीत दै, जिन मेरो मन वस कीनो হাঁ?
मान कद अह. काल सुं हो, उणने दी उत्तर न दीनो जी ।
क्षत्री सुन हरिजन संग से, शिर घर निज्ञ पद पाये हाँ।
हीय षण सूं* ॥१॥
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