विवेकानंद साहित्य [खंड-4] | Vivekanand Sahitya [Khand-4]

Vivekanand Sahitya [Khand-4] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ ईद्वर का दाशनिक विवेचन नहीं है। जगत्‌ के परिचालन में केवल उसी परमेश्वर का हाथ है। सृष्टि आदि सम्बन्धी सारे इलोक उसीका निर्देश करते हैं। फिर नित्य सिद्ध' विशेपण भी दिया गया है। शास्त यह भी कहते हैँ कि अन्य जनों की अणिमादि शक्तियाँ ईदवर कौ उपासना तथा ईश्वर के अन्वेषण से ही प्राप्त होती ই। अत्तएव, जगच्नियन्तृत्व में उन लोगों का कोई स्थान नहीं । इसके अतिरिवत वे अपने अपने चित्त से युक्त रहते हैं, इसलिए यह सम्भव है कि उनकी इच्छाएँ अलग अलग हों । हो सकता है कि एक सृष्टि की इच्छा करे, तो दूसरा प्रलयय की। यह हन्द्द दूर करने का एकमात्र उपाय यही है कि वे सव इच्छाएँ अन्य किसी एक इच्छा के अधीन कर दी जायं । अतः निष्कर्ष यह निकला कि मुक्तात्माओं की इच्छाएँ परमेश्वर की इच्छा के अधीन हैं ।''* अतएव মনিব केवल सगुण ब्रह्म के प्रति की जा सकती है। जिनका मन अव्यक्त में आसक्त है, उनके लिए भार्ग अधिक कठिन होता है।” हमारी प्रकृति के प्रवाह पर ही भक्ति निविध्न संतरण करती रह सकती है। यह सत्य है कि हम ब्रह्म के संबंध में कोई ऐसी धारणा नहीं बना सकते, जो मानवीय लक्षणों से युक्त न हो। पर क्या यही वात हमारे द्वारा ज्ञात प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध मे भी सत्य नहीं है ? संसार के सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक भगवान्‌ कपिल ने युगों पूर्व यह सिद्ध कर दिया था कि हमारे समस्त वाह्य ओर आन्तरिक विपय-नानो ओौर धारणाओं मे मान- चीय चेतना एक उपादान है। अपने शरीर से लेकर ईश्वर तक यदि हम विचार करें, तो प्रतीत होगा कि हमारी प्रत्यक्षानुभूति की प्रत्येक वस्तु दो बातों का मिश्रण है--एक है यह मानवीय चेतना और दूसरी है एक अन्य वस्तु,--यह अन्य वस्तु जो भी हो। इस अनिवायं मिश्रण को ही हम सावारणतया सत्य' समझा करते हैं। और सचमृच, आज या भविष्य में, मानव-मन्त के लिए सत्य का ज्ञान जहाँ त्क सम्भव है, वह इसके अतिरिक्त और अधिक कुछ नहीं। अतएवं यह कहना . कि ईश्वर मानव धर्मवाला होने के कारण असत्य है, निरी मूखेता है। यह बहुत कुछ पाश्चात्य आदर्शवाद (३66७7४४०) और यथार्थवाद (7८७7४४7०) के झगड़े के सदृश है। यह सारा झगड़ा केवल इस सत्य शब्द के उलट-फेर पर आधारित है। सत्य' शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं, वे समस्त भाव ईइ्वरभाव' में आा जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है, जितनी विश्व की अन्य कोई वस्तु॥ और चास्तव मे, सत्य' शाब्द यहाँ पर जिस अयं मे प्रयुक्त हुमा है, उससे अधिक सत्य' खाव्द का ओर कोई अथं नहीं 1 यही हमारी ईङवर सम्बन्धी दारनिक धारणा दै 1 १. ब्रह्मसु, शांकर भाष्य 1४1८1१७१ २. क्ठेोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ 1\ गीता \ १२५1 ४-२




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