चतुर्भाणी | chatubharani

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chatubharani  by मोतीचन्द्र - Motichandraवासुदेवशरण अग्रवाल - Vasudeshran Agrawal

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वासुदेवशरण अग्रवाल - Vasudeshran Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका संस्कृत-साहित्य में प्राचीन नाटक अपनी सुंदर भाषा, चरित्रचित्रण तथा उदात्त शज्ञारिक मावों के लिए, प्रसिद्द हैं; पर जहाँ तक जन-जीवन के प्रदशन का संत्रंध है संस्कृत- नाटकों की सामग्री सीमित है। अधिकतर नाटक राजाओं की प्रेम-कह्दानियों पर आश्रित हैं और उनके भाव, वर्णन शैली और पात्र रूढ़िगत होते हैं । विट, विदूषक, चेट इत्यादि के चरित्रचित्रण में तत्कालोन लोक-जीवन पर प्रकाश डाला जा सकता था, पर संस्कृत नाटकों में उनका चित्रण भी प्राय: रूढ़िगत हो गया। शूद्रक का मृच्छुकटिक एक ऐसा नाटक है जिसमें हम तत्कालीन लोक-नीवन की कुछ भलक पा सकते हैं। मृच्छुकटिक में बिट, चेट, जुआड़ी, चोर, वारबनिता, तत्कालीन अदालत इत्यादि का बड़ा हो जीता-जागता चित्र खींचा गया है । उसके जीते-जागते थात्रों को देख कर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संसार में किसी भी उन्नत समाज की तरह भारतीय समाज में भी वे ह्टी बुराइयाँ थीं जिनका नाम मुनते ही हम आज नाक भो सिकोड़ने लगते हैं। दोंग के सबसे बड़े शत्रु परिहयास, आवाजाकशी और तक है। तक में कारण देकर बहस की आवश्यकता पड़ती है पर परिह्यास तो बुद्धि के तीखेपन की ही देन है तक की मार का तो जवात्र हो सकता है पर हँसी की मार तो सीधी बैठती है और चतुर लोग इसका घुग नदीं मानते। श्रभाग्यत्रश संस्कृत में नोक-मोंक की दिल्‍लगियों और फत्रतियों का साहित्य सीमित है। इसमें संदेद नहीं कि ईसा की प्राथमिक सदियों में अथवा उसके पहले भी ऐसे लेखक रहे होंगे जिन्होंने अपने समय के समाज का चित्र खींचते हुए सामाजिक कुरीतियों और टोगों की हँसी उड़ाई होगी पर कालान्तर में ऐसा साहित्य इलकेपन के दोष से बच न सका | फिर भी संस्कृत साहित्य में ऐसे ग्रन्थ बच गए है जिनसे समाज की दूपित अवस्था पर फत्रतियाँ कसने वालों का पता चलता है। दशकुमारचरित के लेखक दंडी तो इसमें सिद्धहस्त थे । देवता, लालची, मुरगे लड़ानेवाले ब्राह्मण, ढोंगी साधु, बने हुए दिगम्बर ओर बौद्ध-मिक्षु, चोर, वेश्याएं, जुआड़ी इत्यादि कोई भी दंडी की पैनी आँखों से नहीं बच पाया है। कथा-सारित्सागर में भी बहुत सी ऐसी कहानियों है जिनसे हँसी के माध्यम से तत्कालीन समाज-व्यवस्था, पाखंडियों, धू्तों और बेवकूफो की हँसी उड़ाई गई है। क्षेमेन्द्र (११ वीं सदी ) तो इस तरह के साहित्य के आचाय ही हैं। समयमातृका में उन्होंने वेश्याओं और वेश का बड़ा हो जीवित खाका खींचकर उनके फेर में फँसने बाल्लों की खिल्ली उड़ाई है। दपंदल्लन में कुल, घन, मान, विद्या, रूप, शौयं, दान, और तप के दोगों का मज्ञाक उड़ाया गया है और देवताओं तक को नहीं छोड़ा गया है। कल्ा-विल्ास में दंगी, ल्लालची, बनियों, वैद्यो, वेश्याओं, ज्योतिषियों इत्यादि की हँसी उड़ाई गई है। कला-विज्ञास में जो कहानियाँ दी गई हैं वे तो हँसी से मरी पड़ी हैं। देशोपदेश में कंजुस, विट, कुटनी, शुरू इत्यादि के दंभोकी हँसी है तथा नममाला में कायसथों की खबर ली गई




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