रवीन्द्र गीतांजलि | Ravindra Geetanjali

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Ravindra Geetanjali by जगत शंखधर - Jagat Shankhadhar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ॐ ^ र ৮২৩৮৫৩৮৬১৩৮ এ ৬৮ ৯০ ৫৬০ ৩৮৫৮ ७, ७, गीदाञ्जलि प्रात: समीर में जव्रस्णिमर वीणा বলিব होगी, तो मुम उपस्थित रहने के आदेश से मान प्रदान करना । [ १६ ] संसार के आनन्दोत्सव में मेरा निमंत्रण है; मेरा जीबन धन्य हुआ | मेरी आँखें रूप से भरी घूम धृम कर साध भिटाती हैं, मेरे कान गंभीर स्वर में मम्न दें। इस उत्सव मैं मेरा वंशी बजाने का कार्य था!।ओर मैंने उम्तमें अपने प्राण না হিবি। क्या अब समय आ गया कि तुम्दारे दशन कर अपना मौनः अभिवादन तुम्हें अपित करूं | १७ | में इसीलिए बेठा हूँ कि प्रेम के हार्थो भने को न्दं भपित कर दूँ । इसी कारण बहुत देर द्वो गयी दे ओर में ऐसे दोष का दोषी हूं । विधि विधान को बन्धन-डोर लिए वे मुझे कस कर बोधने आते हैं; और मैं सदा हट जाता हूँ क्योंकि मैं प्रेम के द्वार्थों अन्त में अपने को उन्हें समपित करने की प्रतीक्षा में हूँ । পি ৯৩৬৮৬৩৬১৮৬৮ ৩৩ ॐ ৩৫৬০৬৩৮৩৫৫৬ রও क, ११




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