हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना | Hindi Ki Pragati Sheel Aalochna

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Book Image : हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना - Hindi Ki Pragati Sheel Aalochna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाटक अथवा द्र्य काव्य भारतेन्दु हरिव्चन्द्र नाटक शब्द का अर्थ है नट लोगों की क्रिया । नट कहते हैं विद्या के प्रभाव से अपने वा किसी वस्तु के स्वरूप के फेर कर देनेवाले को, वा स्वयं दृष्टि- रोचन के अर्थ फिरने को । नाटक में पात्नगण अपना स्वरूप परिवर्तन करके राजादिक का स्वरूप धारण करते हैं वा वेषविन्यास के पश्चात रंगशभ्नूमि में स्‍्वकीय कार्य-साधन के हेतु फिरते हैं। काव्य दो प्रकार के हैं--दृश्य और श्रव्य। दृश्य- काव्य वह है जो कवि की वाणी को उसके हृदयगत आशय और हावं-भाव सहित प्रत्यक्ष दिखला दे | जैसा--कालिदास ने 'शाकूंतल' में भ्रमर के आने पर शकुन्तला की सूधी चितवन से कटाक्षों का फेरना जो लिखा है, उसको प्रथम चित्नपटी द्वारा उस स्थान का शकुन्तला-बेषसज्जित स्त्री द्वारा उसके रूप-यौवन और वनोचित श्णुगार का, उसके नेव, सिर, हस्तचालनादि हारा उसके अंग-भंगी ओर हाव- भाव का; तथा कवि-कथित वाणी के उसी के मुख से कथन द्वारा काव्य का, दर्शकों के चित्त पर खचित कर देना ही दृश्यकाद्यत्व है । यदि श्रव्यकाव्य द्वारा ऐसी चितवन का वर्णन किसी से,सुनिए या ग्रन्थ में पढ़िए तो जो काव्य-जमित आनंद होगा, यदि कोई प्रत्यक्ष अनुभव करा दे तो उससे चतुर्गुणित आनन्द होता है। दृश्यकाव्यः की संज्ञा रूपक है । रूपकों में नाटक ही सबसे मुख्य है। इससे रूपक मात्र को नाटक कहते हैं। इसी विद्या: का नाम कुशीलवशास्त्र भी है। ब्रह्मा, शिव, भरत, नारद, हनुमान, व्यास, वाल्मीकि, लव-क्रुश, श्रीकृष्ण, अर्जुन, पार्वती, सरस्वती, और तुंबुरुआदि इसके आचाय॑ हैं। इसमें भरतमुनि इस शास्त्र के मुख्य प्रवर्तक हैं। अर्थ-भेद नाटक शब्द की अर्थग्राहिता यदि रंगस्थ खेल ही में की जाय तो हम इसके तीन भेद करेंगे--काव्यमिश्र, शुद्ध कौतुक और अ्रष्ट। शुद्ध कौतुक यथा--कठपुतली লা লীন আহি ব सभा . इत्यादि का दिखलाना, गंंगे-बहिरे का नाटक, बाजीगरी ,




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