समकालीन हिन्दी नाट्य साहित्य का रंगशिल्प | Samkalin Hindi Naatya Ka Rangshilp

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Samkalin Hindi Naatya Ka Rangshilp  by तेजिन्दर वार्ष्णेय - Tejindar Vaarshney

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1111 बह्याँ भारतीय आधारयोँ ने नाटक को अभिनय शवं र॑ग्शाला की वस्तु माना था, यूरोप में इस म्बन्धको लेकर दो प्रकार के गत पर्षत्‌ रहे । कुछ विधारक तो नाटक, अभिनय तथा रंगशाह्ा को र्ठ दूवरे के ¶तर अनवाय मानते है, कन्तु कृ रेते ¶पवारक भी हैं जो नाटक को रंगमंप तथा रंगशाला पे पृथक रर्यो हर उसके कलात्मक एवं गव्यात्मक गुणो को आध महत्व देते है ¡ प्रथम प्रकार के वारकः की वमद परम्परा है, दूरे वर्ग पर अरस्तू, करो आद आते है ¶न्टोने नाद्यकृषैत के काव्याट्मक वैविष्टम को ही अचि मान्यता दी टै! अरस्तू को अपने समय तथा उत्से पूर्व के नाट्य साहित्य का गम्भीर ज्ञान था तथा वे स्थेंस की रंगशाल! उसकी व्यवस्था श्व॑ अभिनय प्रणाली ते भी भ्ली-भाँति पीराचित थे । उन्होंने प्रस्तुत करण पक्ष को त्रातदी का अंग শী সানা | कढ्रोपे ने तो अरस्तु से बहुत आगे बढ़कर रंगमंघ की उपयोगग्ता को ही অমান্য घोष ककया । उनका †वचार है ¶क नाटक की अभिव्यक्त मनर होती है । अतः रेगप्र॑ध चैता स्थल साथन वाछत नहीं है । अरस्तु तथा क्रोषे प्रभ्री आचार्य ते गहरा मतभेद रखते हुए उन्‍नीतवीं-बीतवीं पता ब्दी के अनेक पूरोपीय नाद्य विशारदो ने नाटक के ओस्तत्व को रंगमंच ते पृथ्क माना ही नहीं है । सासी ने नाटक तधा रेगम॑व को अभ्र घोष किया | नाटक मर बीवनानुकरण आभनयात्मक तथा संवादात्मक होता है इतीलर ' को नाटक का प्राण तत्व माना गया है । संवार भर मरै मीत तथा क्या घेन की उत्पीत्त हुई । भारत में यज्ञ, पूवा, नृत्य, नृत्त आगद म *स्यक“ का बन्‍्म हुआ तथा यूनान में डायोनिततत देवता की पूजा उपासना भ अपनी इन्दी आधारभूत वीशिष्टताओं के आधार पर ही नाटक की त॑रचनात्मक्ता तथा शील्पक तैघटना का উর স্থিত ॐ ৮৬ 83 জপ সর ‡ ०148 0828८ ও প্র ६110, 4४ १ कठ 538 18. 48४४5 39 ६18 7१३७६ 2१82६८8, धनद कतत १ ८७ 2 0७876 त6* ६ 220 छलक र ० 1 # 8 9 ० 23 ~ 5 लौहातढ कतरह १८४७. २8८०६15१ 708६ १८६




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