लंका तापूकी सैर | Lanka Taapuki Sair

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Lanka Taapuki Sair by बाबू गंगाप्रसाद गुप्त - Babu Gangaprasad Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लष्का टापृकौ सैर । १५ 0 সীল कष्टौ बाटिकामें बनो खतच्छ नहर । कहीं प्राक्षतिक कोतिको कह रहो हैं, छ्टाधोश वारोशकोत्रंक शद्रे ॥ ६॥ कष्टं पेडको पत्तियां हिन रहो हैं, कहीं भ्रूमिपर घासद्डो का रहो सै। सुगन्धें कहीं वायमें मिल रहो हैं, कहों सारिका प्रमसे गा रहो है ॥ ७ ॥ कच्चों पवतोंको छटा है निरालो, जहां वक्तके द्व द छायगे घने हैं। लगी एकसे एक प्रत्येक डालो, मनों पान्यके हेतु तम्बू तने हैं ॥ ८ ॥ कहों दोड़ते क्ाड़ियों बीच इरन, लिये मोदसे शावकों को भगै हैं। कष्टों भुधरों से करें रम्य भरने; अच्छा ! दृश्य कसे श्रनृठे लगे हैं ॥ ८ 0 कीं खेतकीे खेत लह्टरा रहे हैं; प्रसन्नात्मा हैं कृषोकार सारे । उन्हें देखकर मृंछ फइरा रहे हैं, सदा घूमते कांधघ पर लट्ठ धारे॥ १० ॥ झनोखी कला सचिदानन्दको हः खसोको स्भो वस्तुमें एक सत्ता ।




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