चक्र कांत | Chakrakant
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
207
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चक्रकांत
चक्रकांव बोला--“आश्रम के बाहर हम लोग एक पत्थर का
पहिया छोड़ आये हैं, कोई ले न जायगा न ९”?
भेखला बोली--“ले आवें उसे ।”
इतने में मन्दिर के भीतर शंख बजने लगा और घंटे के नादकारियों
ने लय द्विगुणित कर दी।
“अभी द्वार खुलेगा अब | गुरुदेव के दर्शन होंगे । हम सबको वहाँ
उनके आशीव़ाद लने जाना पड़ता है । आप भी चलिए |”
दोनों शिष्य मन्दिर की आर चलने लगे | चक्रकांत और मेखला
भी पथ में सब के अन्त में ग्रामने-सामने दोनों ओर खड़े हा गये ।
चार चेलों ने मिलकर भड़ाम से मंदिर के दो विशाल द्वार भीतर
को आर खिसकाय | दोनों करों में प्रज्बलित आरती लिये हुए भव्य
रूप और वेश में गुरुदेव दिखायी दिये। पेरों तक लटकता हुआ
गेरिक काषाय वस्त्र, चोड़ी बाहँ, सिर पर उसी रंग की कनटोपी | छाती
पर लटकती हुई लंबी श्वेत दाढ़ी और पीठ पीछे र४ल्छ-८यारी दीर्घं
आलुलायित केशगशि | विशाल वजक्षस्थल, नुकोली नाक और तीखी
ज्योति-भरी आँखें !
दूर से चक्रकांत और मेखला ने उन्हें देखा और सराहा ।
“गुरुरव की जय !!”
गुरुदेव ने मंदिर के बाहर की ओर अपने संतुलित करों में आरती
संभाले धीर पग बढ़ाये |
सबने तीन वार फिर गुरुदेव की जय पुकारी, उनपर पुष्प-चषां
की और एक-एक कर सबने उने चरणों का सश किया । गुरुदेव
शिष्यों के बनाये माग से हाकर आगे को बढ़े। शिष्य एक-एक कर
दोनों हाथों से आरती की लो पर हाथ जाड़ अपने मुख का स्पशं
करने लगे ।
आरती लिय गुरुदेव पंक्ति के अन्त में पहुँचे | दोनों ओर खड़े हुए
दो अपरिचित अतिथियों ने'भी उस परंपरा का अनुकरण किया, पर
पेर नहीं छूए ।
एक शिष्य ने गुरुदेव के हाथों से आरती ले ली। गुरुदेब ने
चक्रकांत और मेखला की ओर स्मितानन से बड़ी प्रीति के साथ
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