चक्र कांत | Chakrakant

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Chakrakant by गोविन्दवल्लभ पन्त - Govindvallabh Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चक्रकांत चक्रकांव बोला--“आश्रम के बाहर हम लोग एक पत्थर का पहिया छोड़ आये हैं, कोई ले न जायगा न ९”? भेखला बोली--“ले आवें उसे ।” इतने में मन्दिर के भीतर शंख बजने लगा और घंटे के नादकारियों ने लय द्विगुणित कर दी। “अभी द्वार खुलेगा अब | गुरुदेव के दर्शन होंगे । हम सबको वहाँ उनके आशीव़ाद लने जाना पड़ता है । आप भी चलिए |” दोनों शिष्य मन्दिर की आर चलने लगे | चक्रकांत और मेखला भी पथ में सब के अन्त में ग्रामने-सामने दोनों ओर खड़े हा गये । चार चेलों ने मिलकर भड़ाम से मंदिर के दो विशाल द्वार भीतर को आर खिसकाय | दोनों करों में प्रज्बलित आरती लिये हुए भव्य रूप और वेश में गुरुदेव दिखायी दिये। पेरों तक लटकता हुआ गेरिक काषाय वस्त्र, चोड़ी बाहँ, सिर पर उसी रंग की कनटोपी | छाती पर लटकती हुई लंबी श्वेत दाढ़ी और पीठ पीछे र४ल्‍छ-८यारी दीर्घं आलुलायित केशगशि | विशाल वजक्षस्थल, नुकोली नाक और तीखी ज्योति-भरी आँखें ! दूर से चक्रकांत और मेखला ने उन्हें देखा और सराहा । “गुरुरव की जय !!” गुरुदेव ने मंदिर के बाहर की ओर अपने संतुलित करों में आरती संभाले धीर पग बढ़ाये | सबने तीन वार फिर गुरुदेव की जय पुकारी, उनपर पुष्प-चषां की और एक-एक कर सबने उने चरणों का सश किया । गुरुदेव शिष्यों के बनाये माग से हाकर आगे को बढ़े। शिष्य एक-एक कर दोनों हाथों से आरती की लो पर हाथ जाड़ अपने मुख का स्पशं करने लगे । आरती लिय गुरुदेव पंक्ति के अन्त में पहुँचे | दोनों ओर खड़े हुए दो अपरिचित अतिथियों ने'भी उस परंपरा का अनुकरण किया, पर पेर नहीं छूए । एक शिष्य ने गुरुदेव के हाथों से आरती ले ली। गुरुदेब ने चक्रकांत और मेखला की ओर स्मितानन से बड़ी प्रीति के साथ १२




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