नरेन्द्र मोहन सृजन और संवाद | Narendra Mohan Srijan Aur Sanvaad

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Narendra Mohan Srijan Aur Sanvaad by वीरेन्द्र सिंह - Virendra Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सृजन: जिंदा रखने का तरीका / 21 सीखे विवादों और बौद्धिक मुठनेड़ों की तासीर होती है। कविताओं में संवादों का बसा रोल नहीं होता । कई बार कविताएं संबादों से लंबे आकार में खींच दी जाती हैं लेकिन जो 'डिस्कोर्संं या पक्ष-पैरवी से आगे नहीं बढ़ पातीं। लबी कविता की संरचना इंद्वात्मकता के बिना संभव ही नहीं है! छोटी कविताओों मे भी हंढ् के कई रूप मिलेगे लेकिन द्वंद् के विना भी ममंस्पर्ञो छोटी कविताएं लिखी गई हैं। आलोचना की बात और है। वहां मेरी प्रवत्ति कृति में व्याप्त हढ़् के सभी संभव रूपों को समझते, विश्लेषित और मूरल्यांकित करने की रही है । प्रश्न : अपने नार्टय-लेखन कौ प्रेरणा भौर प्रयोजन के बारे में कुछ बताएंगे ? । उत्तर : एक लंबे दौर तक नाटक पढ़ता और देखता रहा था, पर नाइक लिखना मैंने काफी बाद में शुरू किया। मुझे याद नहीं कि नाटक लिखने की वास्तविक प्रेरणा मुझे कब और कहां से मिली ? हां, यह जरूर है कि मत मे बहुत कुछ ऐसा कुलबुलाता रहता था जिसे मैं अभिव्यक्त करवा चाहता था पर जो अभिव्यक्त नहीं हो पाता था। हो सकता है जो कुछ मैं कविता में अभिव्यक्त करना चाहता था उस्ते कविता अपने रूप-बंध में समा पाने में असमथ रही हो यह भी संभव है कि मेरे भीतर की अकुलाहट सुगबुगाहट किसी नये कला रूप से अभिव्यवित पाने के लिए तड़पती रही हो और वही नाद्य लेखन के रूप में सामने आ गई हो । यह भी संभव है कि मेरी कविताओं में, खास तौर पर लंबी कवि- ताओं थे नाटक के बीज निहित रहे हों जो समय पाकर नाटकों में विकसित हो गए हों । जो भी हो, यह तो है ही कि बाहरी परिस्थितियों और अंतरंग सर्जे- सात्मक धिवशताओं ने मुझे नाठय लेखन में प्रवुत्त किया और मैंने लगातार चार नाटक लिखे--'कहे कबीर सुनो भाई साथों, 'सींगधारी', 'कलत्दर' और 'तो मैस लैण्ड'। इन चारों नाठकों में आज के मनुष्य और समाज को समझते, उनकी विसंगतियों ओर तनावों को उन्नारते का प्रयत्न किया गया है--कहीं इति- हास के आधार को ग्रहण करते हुए तो कहीं मिथक और समकालीन स्थिति को कंद्र में रखते हुए । प्रश्न : आज के नाटकों में दृश्य अधिक होते हैँ। उनमें अंक्नों का नियोजन नहीं रहता । इसकी वजह क्‍या है ? उत्तर : भारतीय तादय-शास्त्र में अंकों की महिमा है और पाश्चात्य नाट्य- खितन में दृश्यों की। मैंने अंक नियोजन की अपेक्षा दृश्य-विधाव को अपनी मानसिकता के अधिक अनुकूल पाया है! दृश्य-विधान की पद्धति ढ्वारा एक-एक दृश्य में भाव या विचार या स्थिति का उत्कषे रचा जाता है जिसमें नाटकीयता को अधिक हैं। दुर्श्यों मे बनुक्रम के निर्वाह की बात उत्तनी




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