तारिका | Tarika

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Tarika by गोविन्दवल्लभ पन्त - Govindvallabh Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मैनेजिंग प्रोप्राइटर ७ को सहने के लिये तैयार न हुआ। बह अजीब तरह का अंध- विश्वासी और वहमी था । नेपोलियन के भाग्य की पुस्तक उठा, आड़ी-तिरदछ्वी रेखाएँ खींचकर अपना नया काम आरंभ करता था। बह खाना होटल का ही पकाया हुआ खाता था, लेकिन चाय अपने ही हाथ से उबालकर पीता था। होटल के एक नौकर को हर महीने कुछ दे देता था, वह उसके प्याज्ञे धो देता, ओर बाज़ार से चाय-चीनी खरीद लाता । बाहर से होटल में आने-जाने का केवल एक ही मागे था| ऊपर चढ़कर सीढ़ियों के पास ही नंबर एक का कमरा था। बिन वहीं रहता था। प्रवेश और प्रस्थान के उस माग में दिन में रबिन आँखें बिछा रखता था, और रात को कान । रबित के कमरे के सामने ही होटल का दफ़्तर था । कानजी_ शहर के एक सुप्रसिद्ध पूजीपति का लड़का था। उसके पिता की एक बहुत बड़ी साइकिलों की एजेंसी थी, और एक मिल में आधे से अधिक हिस्से । कानजी मदन के पास, उसके होटल में अपनी मोटरकार लेकर, अक्सर पहुँच जाता था। उसे জিনমা से अत्यंत प्रेम था! कभी-कभी रात को बड़ी देर तक होटल में कानजी ओर सदन किस्म की मोहनी में ऐसे डूबे रहते कि देश और काल; दोनो भूल जाते | अवकाश पाकर कभी पॉच-सात मिनट के लिये वहाँ रबिन भी आ जाता; ओर “ऑफिस में कोई नहीं है| ।?--कहकर निकल भागता ।




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