आँचल में दूध : आँखों में पानी | Anchal Mein Dudh : Ankhon Mein Pani

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Anchal Mein Dudh : Ankhon Mein Pani by यादवेन्द्र शर्मा - Yaadvendra Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ “आई जी । यह कहू ज्योतिर्मय की मां जल्दी-जल्दी उपर श्रई । श्राचल को ठीक करती हुईं बोली,” क्‍या बात है ? आप काँप क्‍यों रहे हैं !” “तेरे सपृत्त के कारण, तेरे लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ डाला है। मैं ऐसे कठोर प्रार को कभी ग्रस्ते मे संगीन दंड दे बैदूंगा, मुझे उसका व्यवहार जरा भी पसंद नहीं, आज कहता है छन्दा के धर न जाश्रो, कल करेगा हवेली से बाहर न निकषौ श्रौर परसो करेगा कि तुमसे न बोलो, हूँ ! यह भी कोई भत्र मनुष्यों के लक्षण हैं ?” पावंतती ममता की साक्षात्‌ प्रतिमा थी । इकलौता वेटा होने से वह सदा ज्योतिर्मय' के अवग्रुणों को हृष्टि से श्रोभल कर दिया करती थी । उसके बड़े-बड़े दोषों को सुन्दर आवरण से ढक दिया करती थी। अपने पति को समभाते हुए बली, “श्राप धैर्य रखिए, अभी बह बच्चा है, धीरे-धीरे स्व समझा जाएगा ।” “अ्रगी बह बच्चा है, भरी पार्वती, यदि उसका विवाह हो जाता तो वह वीच बच्चों का बाप होता और मैं दादा श्रौर तुम दादी कहलाती ।” “फिर कोई लड़की हूँढ़ क्यों नहीं लेते ?” पावंती ते पति के समीप बैठ कर कहा, “सुनो, बहू चाँद सी सुन्दर और सूरज थी तरह तेजवान हो । उसमें दुर्गा की शक्ति और सावित्री की भक्ति हो ।” “उसमें सब कुछ है पर****“पर हाँ, अच्छा पार्बती मैं सुबोल के यहाँ जाता हूँ । उसकी तबीयत खराब है, मैं उसकी दृवा-दाझू का प्रबन्ध कर प्राताहूँ ' इतना कह कर जमीदार साहब बाहर चले गये | पायेती ज्योतिमेय के कमरे की शोर बढ़ी । ज्योतिमंय' अपने कपड़े-लत्त संभाल कर नीने उतर रहा था । उसे उदाम्‌ देल कर पाती से न रहा गया । स्नेह्‌-धिक्त स्वर में बोली, “क्या बात है ज्योति ?” “माँ, मैं कलकत्ता जा रहा हैँ ।” वह हौले से बोला । “क्यों ?” माँ की श्राँखें विस्फारित हो गई । “नहीं तो बाबा से मेरा फगड़ा हो जायगा ।”




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