तात्त्विक चिंतन | Tattvik Chintan

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Tattvik Chintan  by सुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) मोक्त प्राप्ति के लिये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आवश्यक हैं। अवधि तथा मनः पर्यय ज्ञान के बिना मोक्ष होता है. किन्तु सतिश्रुति के बिना मोक्ष नहीं होता। आत्मसिद्धि के लिये सति-श्रुतज्ञान निश्चित कारण हैं । पंचाध्यायी में लिखा है-- अपि चात्मसंसिध्ये नियतं हेतू सतिश्रुती ज्ञाने । प्रान्त्यद्नय॑ बिना स्यान्मोक्तो न स्यातऋते सतिद्वेतम ॥| ७१६ ॥ आत्मा की सम्यक्‌ प्रकार से सिद्धि के लिए मतिज्ञान, श्रुतज्ञान नियत कारण हैं | अवधि, मनः पर्ययज्ञान के बिना सीक्ष होता है, किन्तु सतिश्रुत के बिना नहीं होता है। स्वानुभूति का स्पष्टीकरण आत्म-साक्तात्कार अथवा स्वात्मानुभूति का स्वरूप समाने के लिए महिषानुभूति का उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति महिष ( भेंसा ) का ध्यान करने में निमग्न है | वह यह सममता है “श्रयं महिषः , अहं तस्यापासकः” यह महिष है और उसका आराधक हूँ; इस प्रकार उपास्य, उपासक का विकल्प नय-पत्त का अवलम्बन करता है। इसके पश्चात देववश- शीघ्र ही अथवा विल्म्ब से अभेद्भाव को प्राप्त कर “स्वयं हि महिषात्मा” स्वयं को सहिषात्म रूप से अनुभव करता है। यह महिषानुभूति है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति स्वात्मध्यान करने में आरूद है और यह विकल्प धारण करता है “अयम्‌ आत्मा, अहं अस्य अनुभविता” यह मेरी आत्मा है और में उसका अनुभव करने वाला हूँ। इसके पश्चात्‌ वह देववश शीघ्र ही या बिलम्बपूर्वक “स्वयं आत्मा इत्यनु- भवनात्‌ मै स्वयं आत्मा ह, इस प्रकार का अनुभवं करने पर आत्मानुमूति की अवस्था को प्राप्त करता है । * १ दृष्टन्नोपि च महिषध्यानाविष्टो यथा हि कोपि नरः । महिषोयमहं तस्योपासकं इति नयावलवी य्यात्‌ ॥ ६४६ 1 चिरमचिर वा यावत्‌ स एव दैवात्‌ स्वयं हि महिषात्मा । महिषस्यकस्य यथा भवनाच्‌ महिपानुभूतिमात्रं स्यात्‌ । ६५० ॥




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