श्रावकाचार संग्रह भाग ३ | Shravkaachar Sangrah Bhaag 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रधान सम्पादकीय ९ ही संसःग्के कारण होनेमे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । अत्त: निव्चयसे पुण्य और पापमें कोई भेद नहों है । अतः: प्रण्यबन्धको परम्परासे मोक्षका कारण अमृतचन्द्रजीने नहीं कहा। प्राक्ृत भाव- संग्रहे देवसेनाचायं ने सम्यग्हष्टिके निदानरदित पृण्यको परम्परासे मोक्षका कारण अवद्य कहा है - सम्मादिद्रीपुण्णं ण होड संसारकारणं णियमा | मोक्खस्म होड हैउ जइवि निदाणं ण सो बुणइ ॥ ८०४॥ म्थ॑-सम्य्दष्टीका पुण्य नियमसे संसारका कारण नहीं हाना, मोक्षका कारण होत्ताहै यदि वह्‌ निदान नहीं करता । इससे पूव॑में उन्होंने जो कहा है वह प्रत्येक श्रावकके लिए ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा है-- जब तक मनृष्य घरका त्याग नहीं करता तब तक पापोंका परिहार नहीं कर सकता | और जब तक पापोंका परिहार नहीं होता तब तक पुण्यके कारणोंकों नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि प्रण्यके कारणोंकों छोड़कर पापके कारणोंका परिहार न करनेवाला पापसे बन्धता रहता है और फिर मरकर दुर्गंतिको जाता है। हाँ, वह पुरुष पुण्यके कारणोंको छोड़ सकता है जिसने अपना चित्त विषय-कपायोंमें प्रवत्त होनेसे रोक लिया है और प्रमादको नष्ट कर दिया है। जो पुरुष गृह-व्यापारसे विरत है, जिसने जिन लिंग धारण कर लिया है और जो प्रमादसे रहित है उस पृरुषको सदा पृण्यके कारणोंसे दूर रहना चाहिए ॥२९५३-३५६॥ इस तरह पुण्य न सवंथा हेय है भौर न सवंधा उपादेय है । किन्तु सम्यग्हष्टी पुण्यबन्धका अनुरागी नहीं होता, वह उसे संसार- का कारण होनेसे हेय ही मानता हे । इस सम्बन्धमें कारनिकेयानुप्रेक्षाके अन्तगंत धर्मानुप्रेक्षामें जो कथन किया है वह भी उल्लेख- नीय है | उसमें कहा है -- जो प्ररुष प्रण्यको चाहता है वह संसारको ही चाहता है; क्योंकि पृण्य सुगतिके बन्धका रण है और मोक्ष पष्यके क्षयसे मिलता है। जो कषायसहित होकर विषयसुखको तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है, उसके विशद्धि दूर है और पुण्यबन्धका कारण विश्वुद्धि है। पुण्यकी चाहसे पुण्यबन्ध नहीं होता और जो पुण्यकी इच्छा नहीं रखता, उसके पुण्यबन्ध होत्ता है। ऐसा जानकर हे यत्तीरवरों । पृण्यमें भी आदर मत करो । मन्द क्रधायवाला जीव पुण्यवन्ध करता है । अत्त पृण्यवन्धका कारण मन्दकपाय दै, पृण्यकौ चाह नहीं है ॥४०९-४१२॥ इस प्रकार विविध ग्रन्थोंमें एक ही विषयको लेकर जो विवेचन मिलता है वह सब ज्ञातव्य है और यही उन ग्रन्थोंकी विशेषता है । ३. यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें जो श्रावकाचार है उसमे अपनेसे पूवके श्रावकाचारोसे अनेक विशेषताएं हूँ । प्रारम्भमें ही सम्यक्त्वके वर्णनमें लोक-प्रचक्ित मृढताभोका निषेव करते हुए गायकौ पूजा, ग्रहणम दान, आदिका खुलकर निषेध किया गया है। आठो अंगोंमें प्रसिद्ध पुरुषोको कथाएं दी हैँ । पांच अणुत्रतत ओर मद्यत्याग भादि करनेवालों की भी कथाएं हैं | अन्य




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