नाना | Nana

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Nana by एमिल ज़ोला - Émile Zola

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्टेनियर को पकड़ लिया । रोज क्या पोशाक पहनेगी, यह देखने वह झभी तक नहीं गया था । घण्टी की पहली चीत्कार पर, लौ फेलो भीड़ में आगे बढ़ गया । वह साथ में फाचरी को इस डर से आगे घसीट रहा था कि कहीं उस धक्कू-मुक्की में वहू छूट न जावे । लूसी स्टेवर्ट इस सब व्यर्थ की भावुकत्ता को देखकर बिगड़ रही थी । कैसे बेहुदे लोग है, जो स्त्रियों को धक्का देकर चलते हैं। वह भ्रन्त तक करोलीन हेकेट श्रौर माँ के साथ रही । अन्त में मुख्यद्वार के सामने / का स्थान रिक्त हुआ। बाहर निरंतर शोर हो रहा था । “ऐसा लगता है जैसे उनके प्रभितय के श्रंश, सदेव हँसाने वाले रहते है ।” जीने में चढ़ते हुए लूसी दोहरा रही थी । फ़ाचरी और लौ फैलो, अपने स्थानों पर खड़े होकर हॉल का निरीक्षण कर रहे थे, जो इस समय जगमगा रहा था। चमकते गँसेलियर से श्ाता प्रकाश चीख-पुकार में ग्राशा का वातारण उत्पन्न कर रहा था, और वह सुनहला प्रकाश जो छत से आ्राकर फर्श पर बिखर रहा था-ऐसा लगता था मानो स्वर्ण वर्षा कर रहा हो | गारनेट रंग के मखमल की कुरिया से एसा प्रतीते हौ रहा » था, जैसे कोई लाल भील उमड़ भाई हो । सुनहले काम की जगमगाहठ के *बीच.फैली छत्त की पीली हरियाली की सजावट, श्राकपक लग रही थी । उस भिलमिलाते लाल पर्दे पर पड़ता फुट-लाइट' का प्रकाश भव्यता व शालीनता में राज-प्रासाद का सा श्रनुभव करा रहा था। इसके विपरीत उसके फ्रेम की गरीबी व उसके सूराखों द्वाश प्रकट होने वाला प्लास्टर खेद व्यक्त कर रहा थ।। उस समय भ्रत्यधिक गर्मी भी हो रही थी । '्रारकेस्ट्रा' में स्वर-वादक अपने बाजों की तानें मिला रहे थे; बाँसुरी की ग्रुनगुनाहट, हारने की कड़कड़ाहुट भौर वायलिन की घुरीली तातों की ध्वतियाँ भीड़ की उमड़ती ব্যান मे कभी २ दब जातीं । सभी दर्शक श्रापस में वार्तालाप कर रहे थे । बैठने के स्थान तक पहुँचने के लिये श्रागे बढ़ रहे थे या धसीटे जा रहे थे। किनारे की गैलरी में तो भीड़ इतनी श्रधिक थी कि निरंतर आने बालों के सीमारहित आगमन से हार निरर्थक सिद्ध हो रहे थे । दूरी से मित्र आपस में एक दुसरे को अभिवादन कर रहे थे | बच्चों की ` , विभिन्नता व नवीना से एसा लम रहा धा मानो प्राधुनिकता का जलुप्त बढ़




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