कर्म बंधन और मुक्ति की प्रक्रिया | Karam Bandhan Aur Mukti Ki Parikiriya

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Karam Bandhan Aur Mukti Ki Parikiriya by चन्दन राज महता - Chandan Raj Mahta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कर्म विवेचना नहीं देखी है अतः उन्हें उन पाण्दुलिपियों को हृष्टिवाद मान लेने का भ्रम हुआ है। वास्तव में वह दृष्टिवाद | का साहित्य नहीं था । कमे वर्गणाओं की तरंगीय प्रकृति का अ्रध्ययन श्राधुनिक : वैज्ञानिकों का आकर्षक विषय हो सकता है। झआममों में वन है कि कर्म अत्यन्त सूक्ष्म है और जीव ঈ জাম নীল মলি ফই লী एक समय में ही लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाते हैं। विचित्रता यह है कि ये ही वर्गशाएँ अगर धीमी गति करे লী एक ग्राकाश प्रदेश से केवल दूसरे आ्राकाश प्रदेश तक जाने में भी एक समय ले लेती हैं। इससे आभास होता है कि ये सूक्ष्म कर्म पुदुगल, श्राकाश निरपेक्ष गति करते हैं। सांख्य मत ने भी सत, रज, तम, इन तीन ग्रुणीं के वर्णन में रज गुण को एनर्जी (90612) কষ্তা ই গীত इस गुण का व्यवहार, जैन मत में सूक्ष्म पुद्गल के प्रायः समान ही है, जैन दंशन सें जहां कर्म बन्ध के कारण को সান কনা वहां सवर श्र निजंरा के द्वारा कर्मे-मुक्ति के उपाय भी बताये हैं। कर्मो के बन्ध-मुक्ति की प्रक्रिया में लेश्या के रंग प्रधान पुद्गलों की आवश्यकता को समभाया है। जर्मन विद्वानों ने यद्यपि लेश्या को झ्राजीवकों का विषय माना है लेकिन जैन साहित्य मे लेया प्रर जितना वर्णन हृश्रा है उतना श्राजीकक साहित्य में नही है । अध्यवसाय, परिणाम, लेब्या और योग का जो क्रमिक वर्णान, जैन परम्परा मे चित है उतना श्राजीवक साहित्य में नहीं है। राजैव साहिव्यमैतो प्राणियोके विभेद करते हुए उन्हें छः भागों में बांदा है। उन्हें छः लेश्याग्रों से समझाया है। जैन दर्शन ने जीव-कर्म के बिपय को बन्ध प्रोर मुक्ति




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