हिंदी व्यक्तिविवेक | Hindi Veaktiviveak

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Hindi Veaktiviveak by रेवाप्रसाद द्विवेदी - Rewa Prasad Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका की आवश्यकता होती है। गुप्तचर व्यक्तियों की चेष्टाओं से उनके रहन सदन समय स्थान आदि के ही आधार पर तो किसी तथ्य को ताढ़ते हैं उनका यह ताड़ना शिथिलालुमान ही तो होता है । उसे व्यक्षक कौन कहेगा ? काव्य में प्रतोबमान अर्थ की प्रतीति में प्रकरणादि भी सद्दायक साने गए हैं परन्तु उतने पर भी ऐसे काव्य में व्यक्षना स्वीकार कर ली गई जब कि ब्य्नना में प्रकरण आदि की कोई आवइ्यकता नही रददती । यह केवल व्याकरण की अतिझाय भक्ति का हुविपाक है। वस्तुतः यह भी वर के क्षण को ख्द पर थोपने जेसी बात है । जहाँ व्यक्षना मानी जाती है वहाँ भी अनुमान का अस्तित्व स्वीकार किया हो गया है । मम्मट ने अभिनवगुप्त की रसरक्रिया का आरम्भ ही अनुमान से किया है स्थाय्यनुमाने5भ्यास- पारववतासू । संकुक के चित्रतुरगन्याय को वे मानते ही हैं । तो क्या प्रमदादि से स्थायी का अनुमान प्रामाणिक अनुमान है ? दयाकुन्तला का भासीदू विवृत्ततदूना च विमोचयन्ती झाखासु वरकछूमसक्तमपि डुमाणाम्‌ आदि द्वारा जो अलुभाव वर्णित हैं क्या दुष्यन्तविषयक अनुराग के साथ उसका सम्बन्ध असंदिग्व और प्रामाणिक माना जा सकता है। यह तो स्वय दुष्यन्त भी नहीं मानता । वद्द भी उसमें कामी स्वतां पश्यति कह कर सन्देद्द व्यक्त करता है । लोकिक स्थिति में यदद भी अनुमान हा तो है । यदि कोई मनचला युवक किसी साध्वी सुन्दरी पर कटाक्ष कर दे और बह सुन्दरी सुकदमा दायर कर दे तो क्या उसे दण्ड दिया जा सकता है? कदापि नहीं । किन्तु जनमानस उसका सुनिश्चित अर्थ निकारू हो लेता है और थुवक अपनी चेष्टा में सफल ही रददता है । कितनी सग्द्ध है यह संदिग्दीमुमिति १ अनुमित्ति का नाम सुनते ही लोग चौंकत्ते इसलिये हैं कि वह तके के साथ रहती है भौर तके कर्बाद होता है अतः उससे चमत्कारालुभूति या आानंदसंप्ठव में व्याघात की संभावना रहती है । किंतु यद्द अनुमिति अदालत की तो अनुमिति है नहीं और न बौद्धिक अखाड़ेबाजों की ही अनुमिति है यह अनुमिति तो जीवन को पदे-पढदे व्याप्त तथा बुद्धि के दौपक में रनेह के समान हमारी अनु- भूतियों के मार्ग प्रशस्त करने वाठी अनुमिति है यदद काव्यानंद के कृष्णाभिसार में विदग्ध दूती का काम करने वाली विद्युत है। यदि इसी बौद्धिकतन्तुसन्तान को व्यक्षना कद्दा जा रहा दो तो विचाद केवल नाममात्र का है तत्त्वतः तो दोनों एक हैं । न्याय की दृष्टि से उसे काव्यालुमिति कहा जा सकता है और व्याकरण की दृष्टि से व्यक्षना । इतना अवद्य है कि व्यक्षना की सत्ता भावकता पर निभेर है युक्ति और तक पर नही । भावकता काव्य में आवश्यक है किंतु काव्यशास्त्र में नहीं । दास्त्र तो तत्वमीमांसा और तथ्यनिणेय के लिए ही प्रदृत्त होता है चित्त में मिश्री घोलने के लिए नहीं । उसमें तक॑ और अनुभूति के नम रूप को ही महत्त्व दिया जाना चाहिए । अनजुमिति के मासने और व्यक्षना के खण्डन से काव्य का कुछ बिगढ़ता भी नहीं है । ये तो काव्य की आत्मा भानंद के नीचे की सीढ़ियों है । अनुमितिवादी ने स्वयं कददा भी है-- . था विभावादिम्यो रसादीनां प्रतीतिः एव अन्तर्भावमहति । विभावाजु-




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