एक महात्मा का प्रसाद | Ek Mahatmaka Prasad
श्रेणी : पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम भाग १५
ই | इसीको 'काम! कहते हैं | इसीका विस्तार नाना भोग-सामग्रियों-
को, उनके भोगनेकी शक्तिको और उसके उपयुक्त परिस्थितियाको
प्राप्त करनेकी इच्छाएँ हैं | प्रकृतिका यह नियम है कि इच्छार्ोके
अनुपतार मनुष्यकरी प्रवृत्ति तो होती है पर उप्त प्रवृत्तिके अन्तमें प्राप्ति
कुछ भी नहीं होती । इच्छाओंको मनुष्य मिटा तो सकता है पर
उनकी पूर्ति नहीं कर सकता । भोगोंके उपभोगसे होता क्या है !
उनके भोगनेकी शक्तिका हास्त और भोगवासनाकी उत्तरोत्तर वृद्धि ।
जिपके ऋरण अमावका अनुभव कभी नही मिटता भौर की भी
पुल-शान्तिकी उपरन्धि नहीं होती ।
साधकको चाहिये कि उसे जो खत: जानकारी प्राप्त है,
उप्तका आदर करे, उसका सदुपयोग करे; उसके द्वारा यह निश्चय
करे कि न तो यह शरीर मैं हूँ और न यह मेरा है । जब यही
मेरा नहीं है, तब इससे सम्बन्ध रखनेवाले इसीके सजातीय अन्य पदार्थ
तो मेरे हो ही कैसे सकते हैं ? यह निश्चय होते ही सब प्रकारकी
इच्छाएँ अपने-आप निवृत्त ह्वो जाती हैं | अन्त:करण शुद्ध, शान््त ओर
सिर हो जाता है । फिर यह निश्चय करनेमें कोई कठिनाई नहीं
होती कि मेरे तो केवछ मगवान् हैं; क्योंकि मेँ उन्दीका हूँ । मेरी
और उनकी सजातीयता है | स्वभावसे ही मैं उनका प्रिय हूँ, वे मेरे
प्रेमास्पद हैं । जिस स्मय मे उनके जौर अपने सम्बन्धको मूला
हुआ हूँ---उप्त समय भी मेरा और उनका जो नित्य सम्बन्ध है---
वह तो है ही । उसका «भी विच्छेद नहीं होता । यह विश्वास द
तो जतिषर त्कार साधक हदये ওল অভ ঘন নাত .
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