एक महात्मा का प्रसाद | Ek Mahatmaka Prasad

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Ek Mahatmaka Prasad by हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar

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He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम भाग १५ ই | इसीको 'काम! कहते हैं | इसीका विस्तार नाना भोग-सामग्रियों- को, उनके भोगनेकी शक्तिको और उसके उपयुक्त परिस्थितियाको प्राप्त करनेकी इच्छाएँ हैं | प्रकृतिका यह नियम है कि इच्छार्ोके अनुपतार मनुष्यकरी प्रवृत्ति तो होती है पर उप्त प्रवृत्तिके अन्तमें प्राप्ति कुछ भी नहीं होती । इच्छाओंको मनुष्य मिटा तो सकता है पर उनकी पूर्ति नहीं कर सकता । भोगोंके उपभोगसे होता क्या है ! उनके भोगनेकी शक्तिका हास्त और भोगवासनाकी उत्तरोत्तर वृद्धि । जिपके ऋरण अमावका अनुभव कभी नही मिटता भौर की भी पुल-शान्तिकी उपरन्धि नहीं होती । साधकको चाहिये कि उसे जो खत: जानकारी प्राप्त है, उप्तका आदर करे, उसका सदुपयोग करे; उसके द्वारा यह निश्चय करे कि न तो यह शरीर मैं हूँ और न यह मेरा है । जब यही मेरा नहीं है, तब इससे सम्बन्ध रखनेवाले इसीके सजातीय अन्य पदार्थ तो मेरे हो ही कैसे सकते हैं ? यह निश्चय होते ही सब प्रकारकी इच्छाएँ अपने-आप निवृत्त ह्वो जाती हैं | अन्त:करण शुद्ध, शान्‍्त ओर सिर हो जाता है । फिर यह निश्चय करनेमें कोई कठिनाई नहीं होती कि मेरे तो केवछ मगवान्‌ हैं; क्योंकि मेँ उन्दीका हूँ । मेरी और उनकी सजातीयता है | स्वभावसे ही मैं उनका प्रिय हूँ, वे मेरे प्रेमास्पद हैं । जिस स्मय मे उनके जौर अपने सम्बन्धको मूला हुआ हूँ---उप्त समय भी मेरा और उनका जो नित्य सम्बन्ध है--- वह तो है ही । उसका «भी विच्छेद नहीं होता । यह विश्वास द तो जतिषर त्कार साधक हदये ওল অভ ঘন নাত .




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