हिन्दी साहित्य कोश | Hindi Sahitya Kosh

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Hindi Sahitya Kosh by धीरेंद्र वर्मा - Dhirendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी साहित्य कोश. ञअ अंक-दे०-'लाठक । अंक (उत्सषटिकॉक)-नाटकोंमें भी अक होते है; अत- उनसे इस रूपक प्रकारकी भिन्नता दिखानेके लिए इसका नाम उत्सटिकाक रखा गया। शाचार्य विद्वनाथका मत है कि इसमें सष्टि उत्कान्त अर्थात, विपरीत रहती है; इसलिए इसे उत्सषटिकाक कहां जाता है। भरतमुनिका मत है कि अंकका इतिवृत्त अख्यात अथवा कभी-कमी अप्रख्यात होता है । पात्र दिव्यपुरुप नहीं होते । इसमें करुणरसकी प्रधानता होती है और स्त्रियोंका विलाप युद्धोपरान्त पाया जाता है । विलापकर्ताओंवकी व्याकुलताभरी चेष्टाओका नासा प्रकारसे प्रदर्शन होता है जिसमें सात्वती; आरभटी ओर कैथिकी दृत्तियाँ नहीं होतीं । दिव्यनायकयुक्त काव्य; जिसमें युद्ध, वन्ध और वध पाया जाय; भारत- वर्षमें हो रचने योग्य है। आचार्य भरतमुनिने इसके कारणॉपर विस्तारपूर्वक प्रकाण डाला है (नाव्यणास्त्र निर्णय प्रेस, वम्वई; १८ अध्याय; लोक १५०, १७२) | धरन॑जयने प्रख्यात दृत्तको विंस्त्त कर देना आवद्यक माना है । इसमें नायक एव अन्य पार्नोका साधारण व्यक्ति होना अनिवार्य दै (दचारुपक; तृतीय प्रकाश; ७०; ७१) । घन॑जयक्ते समान विदवनाथका भी सतत है कि इसके नायक साधारण पुरुप होते है और इसमें जय-पराजय का वर्णन एव वाकलह' तथा नि्वेदके वचन पायें जाते है 1 उत्स्टिकाकका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । उनका कथन है कि भरतमुनि इस रूपकर्मे एक दही अंक) कोहल दो अंक तथा न्यासाजन आदि तीन अंक मानते है । उन्दोंने इसका नायक दिव्यपुरुप माना है । सागरनन्दी इसमें टिव्यपुरुप पानोंका प्रवेण स्वीकार नहा चरते । चारठदातनयने भरतसमुनिके मतका आश्रय लेते हुए इस रुपकको फेवर भारतवर्षमें उपयुक्त माना हे । उन्होंने आचार्य झाकुकका नामोल्लेख करके अपने मतकी पुष्टि की है (मावश्रकादा; पू० २५३१-५३) । सारतेन्दु हरिश्वन्द्ने इसमें एक अंक माना हैं और इसके नायककों झुणी एव आख्यानकों प्रख्यात माना है । बाबू. श्समें करुणरस प्रधान और मुख ण्व निवहण सन्धियाँ स्वीकार करते है । कीथका मत हे कि जब नाव्वके अन्तर्गत नाटक आ जाता है तो वह अफ कहलाता है; पर यह सतत सर्वमान्य नहीं ! सस्कृतमें उत्सिकाकका उत्तम उदारहरण भासका 'उरुभग' है । ओ० अंकाचतार-यदद अर्थोपघ्षे पका एक भेत है । धनंजय रे मतानुसार नहाँ प्रथम अंककी वस्तुका घिच्छेद किये बिना दूसरे अकफ़ी वस्तुकी योजना हो वहा अंकावतार होता है (दच्चारूपक; १1६०) । वनिकने इसे रपष्ट करते हुए लिया है कि जव एक अंकफे पात्र उसी अंकके अन्तरमें किसी वातकी सूज्ना दें ओर वे ही पात्र उसी कथावस्तुको लेकर; उसे विना विच्छिन्नि किये ही; दूसरे अकर्मे प्रदूष्ट ठिसाई देँ तब अंकावतार अर्थोपक्षेपक होता है । घनजय और धनिककी अपेक्षा विद्वनाधने “साहित्य- दर्पण'में “अकावतार'की परिमापा अधिक स्पष्ट ढठी है- 'अंकान्ते सूचित. पातस्तदकस्याविभागत ।. यत्राको5- वतरत्येपों८कावतार इति स्टत ॥” अर्थात्‌ पूर्व अंकके अन्तम उसी अंकके पात्रों ारा सचित किया गया जो अगला अंक अवृतीर्ण होता हें उसे अंकावतार कहते है) जैसे 'शाकुन्तलमे पंचम अफके जन्तमें उसके पात्रों द्वारा सचित किया हुआ पष्ठ जक पूर्वसे (उसका अग जैसा) ही. अवतीर्ण डुआ है 1 -व० सिं० अंकास्य-यह अर्थोपक्षेपकफा एक भेद है । एक अंकके पश्चात्‌ उसी अंकर्मे प्रयुक्त पात्रों दारा जब किसी छूटे हुए अर्वकी सूचना दी जाती है तव अंकास्य अर्थोपक्षेपक होता है । कुछ आचायोंनि जकास्यका अलय भेद न मानकर इसे अंकावतारके अन्तर्गत दी रसया है । विचघ्वनाधने धनिकके मतानुसार अंकास्यकी परिभाषा देते हुए कहा है; “ण्तथ्च घनिकमताजुसारेणोक्तम्‌। अन्ये त॒अंकावतारेणंवेठ' गतार्थम्‌ इटयाहु । “अन्वे'के चामपर इसे विय्वसाथका ही मत्त समझना चाहिये । -एव० सि० अंगज अलंकार-साच्विक अल्काररोका एक भेट, भरत द्वारा (३ इ० पू०) में सर्वप्रथम उल्लिखित । नायिकाओंके आगिक विकार या क्रियान्यापार; जिनसे उसके मनमें तारुण्य प्राप्त करनेपर उद्भव और विकास पानेवाले कामका संकेत मिलता हे । भरतके अनुसार “नाव; हाव त्तथा हेला एक-दूसरेसे उद्भृत होते हुए 'सरव- के विभिन्न रूप होनेके कारण झारीरसे सम्बद्ध माने जाते है' (ना०; ४1६ । आगे उनका कहना है; “सत्त्व झारोरसे सम्बद्ध है; 'माव' सत्त्वसे उत्पन्न होता है, 'हाव' भावसे उत्पन्न होता है और 'हेला' दावे” (ना०; । दे०-'सात्विक अलकार' । भाव अलंकार-सस्कृतम प्राय. जंगज. अलकारका मेंढ माना जाता हैं और हिन्दीम सुन्दरने (१द5* 5०) भावपर हावोंसे अलग विचार किया ए । नन्ददासनें सर्वप्रथम उसका विवेचन किया है । छुमारमणिने डे




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