मुखौटे | Mukhaute

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Mukhaute by हंसराज रहबर - Hansraj Rahabar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुखोटे “भ्रसम्भव तो खेर क्या होगा ? जब चित्र बन सकता है तो भूरति भी बन सकती है ।” अनिल ने कहा । “बस फिर ठीक है, मूत्ति श्राप बनाइये ।” महन्त बोला, “हम मानते हैं कि श्रम श्रधिक पड़ेगा । पर कोई परवाह नहीं, इसके लिए जो सेवा आपकी हमें करनी चाहिए, उसका निर्णय भी अभी हो जाय ।” ~ यह एक गम्भीर समस्या थी । काफो देर किसी ने कुछ नहीं कहा । श्रनिल श्र महन्त दोनों ही एक दूसरे के मुह की शोर देखते रहे । “भक्तों की कृपा से, “महन्त फिर बोला, “धन की हमारे पास कोई कमी नहीं है। श्राप जो कुछ भी उचित समभते हैं, बिना किसी संकोच श्रौर दुविधा के कह्‌ दीजिए ।” महन्त उदार भाव से मुस्क्राया-श्रीर मुस्कान ने उसके मानव रूप को और भी स्पष्ट कर दिया। फिर उसके मुख से “भगवान की कृपा! के बजाय “भक्तों की कृपा' की वात सुनकर प्रनिल को विश्वास हो गया कि जो व्यक्ति महन्त होते हुए भी इतना साँसारिक और स्पष्टवादी है, उससे मामला प्रवय पट सकता है । पर इस विश्वाप्त के बावजूद अनिल से कुछ कहते न वन पड़ा । उसने चित्र को फिर उठाया श्रौर उसके एक-एक श्र ग, एक-एक হন श्रौर एक-एक विवरण को ध्यान से देखने लगा । “ग्रनिल ! ग्रधिक हैस-वेस की जरूरत नहों । महत्त जी ने सौ की एक बात कह दी । जो मांगोगे सो मिल जायगा ।” मोंगा कुर्सी के वाजुओं पर कोहनियां टेक कर बोला । १३




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