मंजिल से पहिले | Manjil Se Pahile

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उधर घुमा । बरसिएग्रेव मे सिर नीचे झुका लिया। उसके चहरे पर हल्का सा रंग भा गया । “में तुमसे पूरी तरह सहमत नहीं हेँ', वह कहने लगा, “प्रकृति सदेव प्रेम की ही ओर संकेत नहीं करती ( वह प्रेम! शब्द पर रुका ) । ध्यह हमें धमकी भी देती है; यह हमें भयानक--हाँ, अगम्य रहस्यों की याद दिलाती है। क्या यह प्रकृति ही नहीं है जो हमें खाये जा रही है क्या वह हमेशा हमें खाती ही नहीं रहती ? प्रकृति में जीवन और मृत्यु दोनों ही हैं, और यूत्यु का स्वर भी उतना ही सनक्त दै जितना कि जीवन का । “प्रेम में जीवन और शुत्यु दीनों ही हैं,” शुबिन से दोकते हुए कहा । “अर फिर”, बरसिएमेव कहता रहा, “उदाहरण के लिए, बसन्त ऋतु में जब में किसी जंगल में हूं, किसी घने जंगल मे, झौर मुझे ऐसा लगता है कि में वनदेवी की वंशी की ध्वनि सुब रहा हैँ,'--बरसिएनेव यह कहते समय कुछ शर्मा सा गया--- क्या यह भी-- कै “यह प्रेम की, आनम्द की प्याप्त है; और कुछ भी नहीं है,” शुबित ने बीच में टोकते हुए कहा। “में भी उस ध्यनि को जानता हूँ और में उस भावना को, कुष्ठ प्रप्रत्याशित घटित होने की आशंका करने वाली उस भावना को जानता हूँ जो शाम को, जंगल के बीच बने पेड़ों की छाया में था बाहर खुले मंदान में हुदय पर छा जाती है जब জুংজ ভু रहा है और घनी काड़ियों के पार नदी में से कुहदरा उठता चला आ रहा है। लेकिन में प्रसन्‍त्ता की अपेक्षा करता हूँ,--उस वन से, उस नदी से, उस धरती और आसमान से शोर प्रत्येक छोटे मेघलण्ड से और घास के पत्ते से, सबसे में प्रसन्नता मांगता हूँ । मुझे ऐसा लगता है मानों हर वस्तु के रूप में प्रसन्‍तता मेरे पास चली श्रा रही है) मै उसकी पुकार को सुनता हूँ। “मेरा भगवार एक भव्य और झानन्दमय भगवाव है। एक वार मनि इस तरह कौ एक कविता लिखनी प्रारम्भ की थी। तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि यह पहली पंक्ति बड़ी सुन्दर है मगर आगे की पंक्ति मेरे दिमाग में ही नहीं था ११




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