भारतीय शिक्षा दार्शनिक | Bhartiya Shiksha Darshanik
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
172
श्रेणी :
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स्वामी दयानंद सरस्वती ११
ग्रतः जीवात्मा श्रौर ईश्वर का संबंध व्याप्य--व्यापक का हे ।
क्या विभिन्न आत्माएँ ईश्वर से सदैव पृथक् रहती हैं. था कभी दोनों मिलकर एक
भी होते हँ ? जसा ऊपर कहा जा चुका है कि साधर्म्य अथवा अन्वयभाव के कारण वे
एक या समान हैं, पर गुण-बैधर्भ्य के कारण वे एक नहीं हैं और न हो सकती हैं । व्याप्य
श्रौर व्यापक के संबंध के आधार पर भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। उदाहरणत:
ठोस पदार्थ श्राकाश से भिन्न नहीं रह सकता और उससे कभी पृथक न होने के कारण
एक होता हं, पर दोनों मे ग्रसमान गुर होने के कारण वे एक नहीं हैं। उसी प्रकार जीव
प्रौर पृथ्वी आदि पदार्थ व्यापक ब्रह्म से अलग नहीं, फिर भो उससे भिन्न हैं क्योंकि उनमें
वैधम्यं हँ । जसे घर बनने के पूर्व मिट्टो, लकड़ी, लोहा आदि पदार्थ श्राकाश ( अव-
काश) में ही रहते हैँ, जब घर का निर्माण हो जाता है तब भी वे आकाश में हो रहते
हैं, भौर उसमें नष्ट हो जाने पर भी वे आकाश में रहते हैं अर्थात् तीनों काल मे वे श्राकाश
से भिन्न नहीं हो सकते, कितु स्वरूप या गुसा-भेद के कारण वे न कभी एक थे, न य
ग्ररन होगे । उसी प्रकार जीवात्मा तथा संसारके सभी पदार्थं ईश्वर यें व्याप्य होने
पर भी स्वरूप एवं गुण-मेद के कारण कभो उससे एक नही होते ।
इस प्रकार ईश्वर और जीवात्मा के पृथक् श्रस्तित्व को मानते हृए स्वामी दथानंद
अहम् ब्रह्मास्मि, 'तत्वमसि' और 'अथमात्मा ब्रह्म महावाक्यों का ( जो वेदवाक्य माने
जाते हैं ) अपने ढंग से विश्लेषण करते हँ । स्वामीजौ का कथन ह कि ये वेदवाक्य नहीं
हैं, वरन् ब्राह्मण ग्रंथों के उद्धरण हैं। 'अहम् ब्रह्मास्मि' का भ्रर्थ यह नहीं है कि मैं ब्रह्म हें,
वरत् में ब्रह्म में निवास करता हूँ । उदाहरणार्थ, यदि यह कहा जाय कि मैं और वह एक
हैं तो इसका तात्पर्य है कि में और वह 'भ्रविरोधी' हैं। इसी प्रकार जीव समाधि में
निमग्न होकर कह सकता है कि में और ब्रह्म एक श्रर्थात् श्रविरोधी हैं | जब जीव, पर-
मेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के श्रनुकुल अपने को बना लेता है तो वही साधर्म्यके कारण
ब्रह्म से ्रपनी एकता कहु सकता ह ।
द्ितीय उद्धरण तत्वमसि का प्र्थ यह् नहीं है कि तृ ब्रह्म है, वरन् परमात्मा तुम्हारी
आत्मा में है । छांदोग्प उपनिषद् का उद्धरण देते हुए वह कहते हैं कि त॒त् शब्द
का श्रथ है, वहु परमात्मा जो जानने योग्य है, जो अत्यंत सूक्ष्म, इस जगत् और जीव का
प्राता है वहु परमात्मा ही सत्य-स्वरूप है, वह स्वयं अपना आत्मा है है प्रिय पुत्र श्वेत-
केतु ! तु उस श्र॑तर्यामी परमात्मा से युक्त ह । यही भ्र्थ उपनिषद् समथित है । वृहृदारण्यक
उपनिषद् मे महि याज्ञवल्क्य श्रपनो पत्नी मैत्रेयी से कहते है हे सेतरेयी ! ईश्वर आत्मा
ग्रथवा जीव में स्थित है फिर भी जीवात्मा से भिन्न है, मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता हैं कि
यह परमात्मा मुभमें व्याप्त है । जीवात्मा परमेश्वर का शरीर है अर्थात् जिस प्रकार
शरीर में आत्मा निवास करता है, उसी प्रकार आत्मा में परमात्मा की स्थिति है । कितु
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