गीता प्रबंध प्रथम भाग | Essays On The Geeta

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Essays On The Geeta by श्रीअरविन्द - ShreeArvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीतासे हमारी आवश्यकता ओर माँग इससे ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये ऐसे सद्गंधोंमें संप्रण रूपसे चिरंतन महत्त्वका विषय वही है जो सर्वेदेशीय होनेके अतिरिक्त स्वानुभूत हुआ हो, जो अपने जीवनमें आ गया हो ओर जो बुद्धिकी अपेक्षा किसी परा रृष्टिके द्वारा देखा गया हो । इसख्यि गीताकी किस शाख्ीय परिभाषासे उस समयके रोग कौनसा अथ अहण करते ये, यह यदि यथावत्‌ जानना किसी प्रकारसे सभव भी हो तो भी, मेरे विचारमे, इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। फिर यह जानना किसी तरहसे सेभव भी नहीं, यह बात आजतक जो भाष्य इसपर क्लि गये ओर अभी भी लिखे जा रहे हैं उनके परस्पर मतभेदे स्पष्ट ही प्रकट है; ये सब-के-सब एक दूसरे- से विमत होनेमें ही एकमत हैं, भ्रव्येक भाष्यको गीताम अपनी दी आध्यात्मिक रीति ओर धार्मिक विचार-धारा दिखायी देती दै। इस विषयमे चदे कोई कितना दी भ्रचेड प्रयास करे, कितना भी तरस्थ होकर समीक्षण करे ओर भारतीय तत्त्वज्ञानके विकासक्रमके संबंधर्मे चाहे जैसे उद्बोधक सिद्धांत प्रस्थापित करनेमें प्रयल्वान हो, पर यहद्द विषय ही ऐसा है कि इसमें भूलका होना अपरिहाय है। इसलिये गीताके विषयमें अपने करनेकी जो बात है जिसते कुछ राभ हो सकता है वह यही है कि हम गीतामें शास्त्रीय परिभाषाके फेरमें न पड़कर इसमें जो प्रकृत जीते-जागते तथ्य हँ उन्हे द्द, हम गीतासे वह चीज लें जो हमें या संसारकों सहायता पहुँचा सकती है ओर उसे, जहाँतक हो सके, ऐसी स्वाभाविक ओर जीती-जागती भाव-माषामें प्रकट करें जो व्रेमान मानव-जातिकी मनोवृत्तिके अनुकूल हो ओर जिससे उसकी पारमार्थिक आवश्यकताओंकी पूर्तिमे मदद मिले । इस प्रयासमें हो सकता है कि हम बहुत-सी ऐसी भूलोंको मिला दें जो ७




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