अथ आत्मबोधप्रारंभ: | Ath Atmbodhprarambh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| । १७ आसबोष। (१३११३ ) भ कहं कवीर कई जृह्चि हेसूरमा, कायरा भीर्‌ तहां घरडिभाने॥ ` ` | शूर संग्रामको देखि सन्युख मंड, शीश दे नाको साथहुआ। | कमदकीलो कियो फोजमांही पड़ा,पिसन पौचदलजीतिवा ॥ | ज्ञान शमशैर ठे भूमि सवसर करी,जायनिबानपदकियाबासा । | कँ कवीररणधोरनिभयहमा, शीसजगदीशजगजीति खासा ॥ ` | साधुकाखेखतो विकरबेडा मता, सती ओं सूरकी चाल अगे । | सूर घमसानहेपटकृएक्‌ दोयकाःसतीघमसानपलएक खनि ॥ . | साथ पमसानहे रोने दिन जूझना, देह प्रयंत का काम भाई। 1 कहेंकबीरटुकबाग ढीली करे, तोडलटिमनमगनसे जमी आई ॥ | साधु पद कहत तो बातअगाधहे, साथु का खेल तो कठिन লাই। | दोयमरजीवता गत सब गण करः साघु पद भला तो हाथ आई ॥ 4 | „+ अवनि क गुण धरे रहत गेरि मृर्ज्योःकिखा कोदेखिनहिं छोभपवे। । कं कवीर कोई रेख नहिं उपजे, साधु पद्‌ मला तोदहाथ अवे ॥ । नाच आवे तवे काछको काल्यिःनाचबिनकाछ्किसकाम अवे । ` | पाहिरि सन्नाह थारे नाम रणजीतको, बेरघमसानकेकूदि जव । उतरे नूर अर श्याम नरं आदरे दाद दाह मं नाहि पव ৷ सिंहकी खाल अर चालहे भेडकी, कहेंकबीरतबासियालखावै॥ ` बह्म चोगान तरहौज्ञानकी गेददै) रमत अवधूत कोई सन्त शूरा । । सुराति केदंडसोफेरि मन पवनकोः शब्दअनहद तहँ बजे तुरा . - सदारसएक तहाँ मूठिनहीं बिभचरे,कालसेतील्डे रनदिनहोय घमसानमाही। .. कहें कबीर यह विकट बैड़ा मता, कायरा खेल का काम नाहीं॥ + सकल संसारमें एक चीपे फिरे, शीलअरुसांच संतोष नाहीं । जगत अर्‌ भेष सबएक नाक चला, जत अरुसत्तकहों गेरपाही॥ दम्भपाषंड संसारसब मिटतहै, सांचके शब्दको नादीं माने कै कवीर यह खेर बारीक, सके राहको দীন জানি /বি




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