समीक्षा | Samiksha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Samiksha by देवेन्द्रनाथ शर्मा - Devendranath Sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about देवेन्द्रनाथ शर्मा - Devendranath Sharma

Add Infomation AboutDevendranath Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
। পেস উজ উহ (भीष्म साहनी), तलाश! (कमतैश्वर), 'परिन्दे' (निर्मल वर्मा), “जिरगों और जौंक' (अमरकास्त), जंगता' (मोहन राकेश), 'फोलाद का आवार्शा (मोहन राकेश), तथा “यही सच दै (मन्नू भण्डारो । इसी पंगडण्डी पर यात्रा करती इन दिनों एक कृति सामने आयी है--वह्लभ सिद्धार्थ की হী प्रसंग! (धर्मयुग, २५ जुलाई, १९७१) । कहानी में एक विधवा पराश्चिता की घुटती हुई शब्दहीन संवेदना, पारिवारिकों के सम्बन्धो कौ प्रवंचनापूणे भभिव्यदिति बहूत यारोको से याको गयी है! कथाकार को नित्िप्तता एक भाग्यहीन सारी की छुचली हुई भान्तप्विता को षड दक्षता रो उद्घाटित करती है। अन्तः सम्बन्धो फा सोचना अभिनय स्वतः ही प्रकट होता चलना है ओर पराश्चिता नारो तथा उसकी बेदी के प्रति पारिवारिको के छलनापूर्ण व्यवहार की परतें खुलतो जाती है । कहानी में जो कुछ घटता है, बह भोतर हो भीतर कही गहरे घटता है--सतह के बटुत नीचे जहाँ पीड़ा का घघक्ता ज्वालामुखी दवा पड़ा हो। लेसक को कलात्मक बारोबोी मूल सवेदना को सम्प्रेधित करती चलती है। फताबार या जबरदस्त संयम ट्रंजडो की निर्मेमता को, आवेगहोन भाषा और स्थितियों मे, पाठक के मन में खंजर की पैनी धार वी धरह चुपचाप उतार देता है। गणव यह है कि बचा में यरत्रणा को रघूल रूप में प्रकट करनेवाला एक भी प्रत्यक्ष मुहावरा नही है । जल वेः अजस प्रवाह को तरह पारिवारिक परम्परा में अनेत्र सिलशिले बनते बिगड़ते रहते हैं। रिएतों के कट्टवे मीठे सिलसिले, बदलते सनेटशन्प्भं, कदम पदम पर उभरते गतिरोध हर सम्बे चोद परिवार में दूध और पानी वी त१६ पुले मिले रहते हैं। सिलशिते शुरू होते हैं, गतिरोघ आते पर टूट जाते है; फिर बोई जोड़ने वा हिलसिता शुरः हो जाता है--इस तरह सम्बन्धी के उतार-नद्राय, अलगाब-मिलाप परिभाषित होते जाते हैं। मानव-सिलसिलों को ऐसी ही एक घजनदार बा है सुदीप को 'सिलसिले' (सारिका: जुलाई, १९७१)। 'सिलतिले' के बेन्द्रमे कोर रेशीमेड समस्या या समाधान नहीं है। बलाथार वा उद्ंध्य बेवत उन शाइवत नसलधिलों थो प्रस्तुत करना है, जो परिवारों बो काल-चेतना मे बनते बिणडते रद्दते हैं। मसलसिले' परिवार के भावना-प्रपान अमेक पृष्ठ उधाइती है, विग्तु बिसी पारम्परिक तरौडे से प्लॉट बनाने मे नही उलहतो, न हो दिसी मानदीय समरया दा रेड्रोमेड समाधान सोयतों है । হাদয়োলী थे छोटे झशथ सिलसिले बनले बिगडश्ते जाते है। यों एबं भारसोय परिवार की पूरी संखूति दिश्लेषित हो जाती है। १हानी मे परिवेश वो অনশহ্যাশা को बड़ी सशगवा से पहचाना पया । हषं दिपाद वेः परिवनभ्ोल पारिवारिक सिलस्ति षपाबार्‌ कौ जागरुगता के कारण लए बढ आत्मीय हो एये है । बई बार ऐसा भी होता है दि बडी चालाबो से अपनो गृविपा न मूहाबिंक औरत को एड बरतु के; रूप में एरतेमाल दिया ~प घालाडी यहाँ हक নী আলা £ বি: बपतो गुदिधा बे: मुताबिक ऐसी वरतु से धादी भी बर लो जाती है। बरतु को दादों के शाद घालापी की कहो बा पता लगता है ओर उराशो शाम्पूर्ण मारी खेदेगा अपमानित महसूस करने शणवी है। दृए पर पहरेदारी यह दि मूलम्मा-चढ़ो शाघाजिक प्रतिष्ा उसुशो अध्यिता को अयतो के इनो में घेरे रणता चाही है। एश ऐसी प्रतिष्णा बी সহযনী। অহা ছা: জী সাহা को कोई নার লী 8, ছাতক সশিতান, আহত ম समयान्‌ महन्‌, दजन निर्ध द, ध्ाषु जिरता के खोगन शोभन पन्ते रहते है। ऐसे गाहोल में एक वस्तु दे रूप मे इदुकद हुई बारी अपनों अरब जुबाई अधरत, १९७२ ११




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now