पंचदश लोकभाषा निबंधावली | Panchdash Lokbhasha Nibandhawali

Panchdash Lokbhasha Nibandhawali by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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সি সালিশ দন উর রা ২ রতি জব উঠ “সর 2 সন ৬ সর थी। अ्रधिकाश कथानक सकेत में ही व्यक्त होता था और गद्य का व्यवहार कम-से-कम लिखित रूप मे नहीं होता था। राजसभाओं में दी ये नाटक अमिनीत होते थे । रंगमंच खुला रहता था और अमिनय दिन में ही होता था। कथानक नवीन नहीं हुआ करते थे--बहुधा पुराने पौराणिक आस्यान या नाटक को ही फिर से मीति-नाख्य का रूप देकर श्रथवा केवल संशोवन करके उपस्थित कर देते थे । नैपाली नाटककार की कार्यमूमि मुस्यतः तीन स्थानों में रही---मातगाँव, काठमाण्डु, और पाटन । भातगाँव में सबसे अ्रधिक नाठक लिखे गये और अमिनोत हुए। मुख्य नाटककार पाँच हुए--जगज्ज्योतिमलल, जगत्मफाशमल्ल, जितामित्रमल्‍ल, भूपतोन्द्रमलल और रणजितमल्ल | इनमें सबसे अधिक नाटक रणुजितमल्ल ने लिखे। इनके बनाये १७ नायको का पता श्रवतक लगा दै 1 काटठमाण्डु मे सख्वसे प्रसिद्ध नाटककार वंश. मणि भा हुए | पाटन में सबसे बढ़े कवि और नाटककार सिद्धनरसिहदेव (१६२०--१६५७) हुए। नैपाली नाठक की परम्परा एक प्रकार से १७६८ ई० में नष्ट हो गई; जब महाराज पृथ्वीनारायण शाह ने वहाँ के मल्‍ल राजाओं को हराकर गुरो का राज्य स्थापित किया, किन्तु क्रिसी रूप मे आज भी यह परम्परा भातगाँव में प्रचलित है । मध्यकाल--(२) जिस समय नेपाल के यजदरवारों में गीतिनादय की परम्परा बन रही थी, उसी समय मिथिला में जनता के बीच और बाद में खण्डवलाकुल के अम्युत्यान इं।ने पर राजसभा में एक दूसरे प्रकार की नादय-प्रयाली भी बन रही थी, जिसको 'कीत्तेनिया नाटक! कहते हैं । 'कीत्तेनिया-नाटक! का आरःम्म प्रायः शिव या कृष्ण के चरित्र का वर्णन करने की इच्छा से हुआ। परन्तु इसका ताटपयय यह नहीं है कि कीत्तनिया नाटक धार्मिक নাকে হার ধি। इनमें मनोविनोद या दृश्य-काव्य के आनन्द की पूर्ण सामग्री रहती थी, किसी रुम्पदाय या देव-भक्ति की विशेष सामग्री नहीं रहती थी । क्रीचनिया का श्रभिनय रात को होता था। इसके श्रमिनेताओों की मएडली समाज के सभी মাহী से बनती थी। उसका प्रमुख 'नायक' कहलाता था। कीत्तनिया का अपना विशेष संगीत हुग्रा करता था, जिसे 'नारदीय' कहते हैं । कीत्तेनिया नाटकों के श्रारम्भ में भी केवल मैथिली गानों को संस्कृत-नाटकों में रखा जाता था । इन गानों के द्वाय बहुधा संध्कृत-रलोको का या वाक्यों का अर्थमात्र ललित भाषा में स्पष्ट क्रिया जाता था। स्वतंत्र गान का उपयोग अधिकतर केवल स्त्रीपात्र या छोटे पात्र द्वी करते थे। क्रमशः सम्पूर्ण नाटक मैथिली गानमय होने लगे । क्वचित्‌- अवचित्‌ ही संस्कृत और प्राकृत का उपयोग होता था। विशेषतः गद्य तो कथनोपकथन में हो होता था। कीत्त॑निया नाटक की सबसे परिपक्द अ्रयस्था गें संस्कृत और प्राकृत का बिलकुल प्रयोग महीं देता था | संस्कृतनाटक का ढाँचा भी नहीं रृता था। एक प्रकार के




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