पूर्वार्द्ध सिद्धान्त खंड | Purvarddh Siddhant Khand
श्रेणी : आलोचनात्मक / Critique, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
616
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वैष्णव धर्म भौर भक्ति का उदय ६
कमय विष्णु की प्रशंसा में काम झाते लगे । “विष्णु के हरि केशव, वासुदेव, वृष्णी पति,
चृपण, ऋषभ, बैंकु ठ, वृहच्छुवप भ्रादि नाम जैसे पहले इन्द्र के लिए प्रयुक्त হীরা ইল
सम्बन्धी किसी वस्तु को सूचित करते थे, घीरे-घीरे विष्णु के कई नामों एवं उपाधियों का
श्धार यन गये ४१ विष्णु का यड् मदाय द्वग यत्त का प्रमाण है कि भवित की हष्टि से
भ्रन्य देवी-देवताप्रौ की प्श्य विष्लु ङे नाम प्नौरस्प को भ्रधिक धरक्तपेक भोर परिपणे
समा गया था। विष्णु दम्द की निर्क्ति भौर निर्वचन रते समय विष्ण की व्यापकता केन
ध्यान सतत वना रहा \ यास्काय ने श्रये लिरुवत्र में विप्णु शब्द बी निदकित इत प्रकार
की है-- प्रय थद् तिपितो मवति, तदविष्युरमवति \ विष्णु पिशित व्यस्नोतेरडी +' धो दुगोचाये
या तिर्वेचन इस प्रकार है-- यदा रर्मिभिरनिधयेनापं व्याप्तो मवति, न्याप्तोति वा सिम
श्भरयेसर्वम् ! तदा विष्णुरादित्यो मदति २ यथायं मे जो समस्त चराचर जपत् वी व्याप्त
करता दै वही विष्णु हैं 'वेवेप्टि-्याप्नोति चरावरं जयद ঘা विष्णु:' यही ्ुत्पत्ति विष्णा-
भादहात्म्प प्रतिपादन के जिए पर्याप्त है ।
वैष्णव धम के भूल में विष्णु की यह सर्वेशवितमत्ता ही प्रधान है जिसका व्यापक विस्तार
विविध रूपों में भडित क्षेत्र में हुप्रा । दिप्ण के प्रधिक साम्निध्य की कामता से, उसे भधिक
हदयावपेः सूम पान सने षी लालसा से विष्ट की नराकार मादन नारायणा ( विष्णु)
हैः हुप में हुई । इस विषय की भोर भाचाय॑ रामबन्द्र धुक्ल ने प्रपने 'मित वा विदा
शीपक निषध में संवेत दिया है )१
नारायण के रूप में भी दिप्णु की उपासना का विधान वंप्णव धर्म में है। मर के
प्रयन का भन्तिम सत्य वारायण है। ऋग्वे३ में सृष्टि निर्माण को कपा के भ्सग में सारायश
हि मिलता है ।४ मलुस्मुति में नायर शब्द वी व्ययति करते षेए बाया मथा
क
रापो भरा हति परोक्ता সাথী ই मर सूनवः
हप पदप्पापनं भूषं तेन नारदतः দত. 9
मनुस्मृति धण १ इलोक १०
महाभारत मे नारायण रुप में जिप्टु ढा दणुत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
माणप भोर विष्णु दोनों शा तादात्भ्य रुप में वहां दाभोस्तेस हुभा ই। পাহায की
एलाह ऐ ही समुद-मयत दिया पया ऐसा भी यछंन है।* दिपयु के विविध रूपों का पुग,
१, भर्ति क्ट इन एनपियट दण्डिविः--डो० के० गोस्वामो--षृष्ठ १०१-१०२
२. दारक -निष्टष १२१९८ जिदशत दुर्गादायं--२१६१३४
३. देशिए--परृररास (भरित वा विश्सत) पं० रामचस्ड शुक्त--पृष्ठ २० से ३० तह 1
४. 'ादेर--१०२१५०६
5-1६ 5७३५ ९ आय) जा), ची10 11 हट हाहआए४ €; সা ४५ <) 5467681264৭
प्र ৪১টি ১2580 0 উহহ৫027 কত হত রত ০6£
19४ ११४८ 86९१८ ३० তত ০ ৩250 কত তাত ९० कत्ल चष्ट
प्ल তথ ৫ 210 (13309२72 27.)
रैवत त ही ० हठ 1. 0००१4, 74&€ 15.
User Reviews
No Reviews | Add Yours...