नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति | Nayi Kahani Sandarbh Aur Parkriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १७ प्राप्ति के साथ ही कहानी-समीक्षा के मानदंडों या पद्धति का प्रश्न उठता है । यों नयी आलोचना ने मानदंडो का प्रश्न बहुत कुछ अप्रासंगिक करार दे दिया है, और उसके स्थान पर वहू पद्धति के नवीकरण पर वल देती है (देखिये : मई, १६६४ मे दिल्ली मे 'नवलेखन के भावबोध' पर आयोजित गोष्ठी की माध्यम जुलाई '६४ और “সণ তুল, १६६४ में प्रकाशित रिपोर्ट) ! पर ऊँसा कि अभी सकेत किया जा चुका है कि नयी कविता में जिस प्रकार तमाम दास्त्रीय मानदो को जप्रासगिक सिद्ध करके उसकी मूल्यसत्ता को नये सिरे से खोजा गया, विश्लेषण की पदवि और समीक्षा की शब्दावली आविष्कृत हुई, बैसा प्रारम्भ में कहानी-समीक्षा में सम्भव नही हो सका। ऊपर बताये गए कारण के अत्तिरिक्त एक तथ्य शायद यह भी था कि काव्य-समीक्षा में जिन सिद्धान्तों को अस्वीकार किया गया उनकी एक बड़ी दकित को आत्मसात्‌ भी कर लिया गया, पर कथा-समीक्षा के पहले से प्रचलित मानदंड इतने लचर थे कि बहुत-कुछ नये सिरे से ही शुरू करनां था ओर इस शुरुआत में ग्राम-कभा, सगर-कथा जैसे बेमानी वर्गीकरण पुराने प्रभावों के फलस्वरूप उत्पन्न कमझोरियों के उदाहरण हैं । अस्तु, कथा-समीक्षा की नयी पद्धतियों या औजारों को विकसित करते समय परदिचम के फिक्शने क्रिटिसिज्म से भी सहायता ली गई और काव्य-समीक्षा की कोटियो को (हिन्दी से भी और पश्चिम मे 'न्यू क्रिटिसिश्म' के प्रभाव-तले लिखी जाने वाली कहानी-समीक्षा, जोकि मूलद. कविता के लिए अधिक उपयुक्त है, मे भी) भी लागू किया ययां। यही यह कह देना मुझे प्रासगिक लगता है कि पश्चिम से आयातित क्ये जाने पर मुर्भे ततिक भी आपत्ति नहीं है। हम सभी पश्चिम की विकसित सपीक्षा-पद्धठियों से जाने-अनाने प्रभावित होते रहते हैं। आपत्ति केवल धहां पर की जा सकती है जहाँ उन कोटियो को लागू करते समय प्रसंगानुकूलता या ओऔचित्य का घ्याद नही रखा जाठा। यों हपारे रचनाकारों के प्रेरणाखोत भी वहाँ कम नही हैं । पर कुछेक विसगतियों की ओर ध्यान दिलाता आधदश्यक है । पहली बात सो यह कि परिचम में फिक्शन क्रिटिसिम अधिकाशतः उपन्यासो और कहानियों के पूरे सन्दर्भ में लिखा गया है। पर हिन्दी मे कुछ तो उपस्यासों के अपेक्षाइत अभाव के कारण, और कुछ पूरे परिदृश्य को ध्यान मे रखने के लिए जिस परिश्रम एवं योग्यता की आवश्यकता होती है उससे बचने के कारण, केवल कहानियों को ही चर्चा का आधार बनाया गया। इसका स्पष्ट परि- शाम है कि अक्सर वहानी से उत घीज़्ों की माँग की जाती है जिनकी माँग उपन्यास से हो की ভা सकती है। यो दोनों के रूपयत अन्तरों की कहिपय ऐतिहा- सिक अनिवायंद्राओं के वावजूद दोतो के समीक्षा-मूल्यों के सेट अलग-अलग नही किये जा सकते। और यदि अलग करने की चेष्टा की जाती है तो फिर उपन्यास-सम्बन्धी प्रतिषपत्तियो को लायू करने से वचना होगा । दूसरी बात यह कि




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