साहित्य - परिक्षण | Sahitya Parikshan

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Sahitya Parikshan by सत्यदेव चतुर्वेदी - Satyadev Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शभ भारतीय काष्प-मत गौड़ी रीतिसे वामनका प्रयोजन ऐसी उमासब॒हुला पदादलीसे है, किसमें ओजगशरकी व्यज्ञना स्वभावठः दोती दे । ऐसी पदावलीमें स्वमात्तः कंत्रि- मता रहेगी एवं उसमें शब्दालड्भारोंका बाइल्‍य होगा । फिर मी काठ्पको एक वतन परिपा रूपतरं मोदी रीतिका श्रना स्त्रतंत्र अस्तित्व है। बैदमों रीतिमें गौड़ी रीतिक्री माँति लम्दी-लग्बी सामासिक पदावलो नहीं छती, फिर भी समासोंका नितान्‍्त श्रमाव नहीं होता दे। प्रधाद गुण की इसमें प्रधानता रहती द} कालिदास रचना वैद्म रीति सुन्दर उदाहरण है। क्रमशः रीतियोंकी रुख्या बढ़ती गई और परवर्ती लेखकोंने दस रीतियों हकका नामील्लेख किया है; किन आचार्य मम्मके प्रसिद ग्न्ध 'काव्य- प्रकाश! मैं जिसका निर्माण दसवीं शताब्दीके श्राउपास दुच्चा था, उपयुक्त तीन ही रीतियोंका उल्लेख है ! ऐसा श्त द्ोता है कि रीतिको काव्यको श्रात्मा माननेवाले आचाय॑ दामनने संसक्ृत-काव्य-साहित्यकी शेलियोंकी नए- লহ नामोंसे ग्रभिहित करना चाद्या होगा । यही कारण है कि रीतियों को संख्या बढ़ते लगो; पर पीछे के श्राचार्यों ने रीविक्ली संख्या कम करनेका डदयाग किया और रीति दया गुणोको संयुक्तकर दिया | रीतिका आरम्भिक अर्थ या पद रचना--इढी पद-चनाके गयो पर रीति-सम्प्रदायका विदेवन ऋवलम्वित दे । श्रगे चलकर काब्य-शुणों का पर्य॑- बसान रीति-सम्प्रदायके अन्तर्गठ किया जाने लगा और (काव्य-दोप-सम्बत्धी शम्यदायका भी रीति-सम्थदायमें ही परवान हो गया। श्रारम्भमें दोपक थ्रमाव- को ही गुण माननेकी प्रजृत्ति थी, परन्तु क्रमशः गुणोंकी स्वतस्त्र सत्ता स्थिर हो गयी। फेवल दोपोंका श्रमाव हो गुण नहीं है, दरन्‌ गुण काव्य रचनाका श्रापारपूत तरद है। यह नदीन प्रतिष्ठा रीति-उप्प्रदायके अन्तर्मत हुईं। इस सम्पदायके श्राचारयोंने गुण और दोषके ठत्वोंढ्रा विशद्‌ विवेचन किया | गुणोंकी संख्या प्रास्म्ममैं दस थी, प “वह बौसदो गयी; ङिन् आगे चलकर यह संख्या स्थिर ও মানুষ, আস আহ भ्राद ये हो तीन 7 * खंल्या मी मिन्न- ^ „ सपय ठक्‌ रख-सप्म- ২ টি এ




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