भीष्म का राजधर्म | Bheeshma Ka Rajdharm

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Bheeshma Ka Rajdharm by श्याम लाल पाण्डेय - Shyam Lal Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० সন্ধান बन जता हूँ । यह पृथ्वी अनेक झाये शर-बीरों से भरी पड़ी है। फिर राजा ही श्रकेला किस प्रकार इसकी रक्षा करने में समर्थ होता है श्रोर वही क्यों प्रजा के সালক্ছ की कामता करता हे ? इस अकेले राजा की प्रसन्नता को देखकर पारी प्रजा क्यो प्रसन्ष रहती हैं ? राजा के चिन्तित होने पर सारे लोग व्याकुज हो उठते हें । ऐसा क्‍यों है ?' हे भरत ! में इस विषय का तथ्य जानना चाहता ह! हे वदताम्व॒र ! आप इस विषय का जहाँ तक हो सके ठीक-ठोक वर्णन कोजिए ` राजा युधिष्ठिर के इन सन्देहों के समाधान हेतु भीष्म ने जो उत्तर दिया है वह सामग्रो राजशास्त्र के इतिहास में बड़े मल्य की साम्ग्रो समझी जायगी। इन प्रदनों के उत्तरों के देने में भीष्म ने राज्य की उत्पत्ति के विषय में जो प्रकाश उाला है वह इस सिद्धान्त की स्थापना करता हैँ कि राज्य की उत्पत्ति सामाजिक श्रनबग्य के प्राधार (09207006001 09819) पर हुई हे । युधिष्ठिर के द्वारा राजा के निर्माण के विषय में जो प्रइन किये गये हूं जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका हे उनका समाधान करते हुए भीष्म राज्य की उत्पत्ति के विषय में कहते हें--तुम सावधान हो जाओ । में इस प्रन का पुणेरूपसे उत्तर देता हूँ कि किस प्रकार सत्य युग से यह राज्य व्यवस्था की परिपाटी चली हे ।' हे राजन ! सत्य युग में राज्य, राजा, दण्ड या दण्ड देने वाला कुछ भी नहीं था ।' समस्त प्रजा धर्म के अनुसार चलतो थी और उसी से परस्पर रक्षा कर लेती थी । है भारत ! অঙ্গ को लक्ष्य में रख कर लोग एक-दूसरे की रक्षा कर रहे थे । दुःख की १--तुल्यपाशिभुजग्रीवस्तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मक: | तुल्यदु:खसुखात्मा च तुल्यपृष्ठमुखोदरः ॥ হলীক্ক ६ ০ ५६ शा० पते ॥ तुल्यशुक्रास्थिमज्जा च तुल्यमांसासूुगेवं च। निःश्वासोच्छवासतुल्यश्च तुल्यप्रागशरीखान ॥ इलोक ও श्र० ५९ शा० पवं॥ समानजन्ममरणः समः सर्वेगुणन णाम्‌ । विशिष्टबुद्धीन्‌ शुराद्व कथमेकोऽधितिष्ठति ॥ श्लोक ८ भ्र० ५६ ला० पर्व ॥ २-- कथमेको महीं कृत्स्नां शूस्वीरायंसंकरुलाम्‌ । रक्षत्यपि च लोकस्य प्रसादमभिवाछति ॥| श्लोक ६ श्र० ५६ शा० पर्व ॥ २--एकस्य तु प्रसादेन कृत्स्नौ लोकः प्रसीदति । व्याकुलें चाकुल: सर्वो भयतीति विनिश्चय: ॥ इलोक १० झ्र० ५६ श्ञा० पर्व ॥॥ ४--एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं. तत्त्वेन भरत्षेंभ । कृत्स्न॑ तन्मे यथातत्त्व प्रबत्रहि वदताम्बर ॥ श्लोक ११ झअ० ५९ शा» पर्व ॥ ५--नियतस्त्व॑ नरव्यात्र श्णु सर्वमशेषतः। यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत्‌ । इलोक १३ श्र० ५६ शा० पर्व ॥ ६--न वै राज्यं न राजाऽऽसीच्न च दण्डो न दाण्डिकः । धर्मणेव प्रलाः सर्वा रक्षन्ति स्म॒ परक्परम्‌ । शलोक १४ श्र० ५६९ शर० पर्व || कणि




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