रजत जयन्ती ग्रन्थ | Rajat Jayanti Granth

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Rajat Jayanti Granth by आर्तवल्लभ महान्ति - Artvallabh Mahanti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~~ শু है। दानवी शक्ति से और आशाएँ क्या की जा सकती हैं? अगर सभी शुभ चिन्तन करें तो दैवी और आसुरी शक्ति का भेद ही न रहे। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि देवी शक्ति जैसी है वेसी दानवी शक्ति भी है! शक्ति एक होने पर भी प्रयोग और प्रणाली में अन्तर है। देवी शक्ति में सत्य है, शिव है, सुन्दर है परन्तु आसुरी शक्ति में इससे उल्ठा है। उसमें ध्वंस की प्रधानता है, निर्माण की चिन्ताशक्ति वह नहीं है। निर्माण का चिन्तन ही ईश्वरीय चिन्तन है। ... भारतीय साहित्य की मौलिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने पर तमाम विश्व दाँतों तले अँगुली दबाता है। यह जग-मानी बात है कि ऋग्वेद की रचना दुनिया में सर्वप्रथम रचना है। यह रचना किसने की, यह किसी को भी मालूम नहीं। लेकिन दूरदर्शी मनीषियों ने यह अपने दिव्य ज्ञान से माठम कर लिया है कि यह रचना मानवी नहीं, बल्कि ईश्वरी है--ईह्वर के मुख से निकली है। इसीलिए आरयों ने ऋग, यजु और साम को ईर्वरी वाणी माना है। इस ज्ञान के प्रकाश के बादसे ही सत्य का आविर्भाव होता है। यही सत्य परम ब्रह्य परमात्मा है। इस सत्य की व्याख्या ओर ताकत की विवेचना जितनी भारतीय साहित्य में की गई है, शायद ही कहीं की गई हो । : इसी सत्य से वेद-ज्ञान-का प्रकाश जग-मन में फैला है। वेदों के ज्ञान-विज्ञान की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध दाशनिक विद्वान्‌ श्री सम्पूर्णानन्द जी ने लिखा है--वेदों में हमारे समाज की बहुमूल्य सांस्कृतिक निधि मौजूद ह । भगवद्गीता बड़ा ही उत्तम ग्रन्थ है। परन्तु इन दो मन्त्रों की, जो यजुवेद के चारीसवें अध्याय में आते हैं, व्याख्या के सिवा और क्या है? ईदावास्यमिदं सर्व॑ यत्किचित्‌ तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्‌ धनम्‌। कर्वस्ेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।” आपका मत है कि सारी भगवद्गीता का सार इन्हीं दो इलोकों में है तो फिर चार वेदों के विशाल ग्रन्थ की निधि की कल्पना की जा सकती है। उसी गीता की इज्जत सारे संसारम है ओर उसे सर्वोत्तम माना गया है। सारे संस्कृत वाहुमय से पता चलता है कि भारत कहाँ था और दुनिया कहाँ थी। वेद (ज्ञान) का प्रकाश फेला, उपनिषद्‌ तथा दर्शन का प्रभाव पड़ा। उस समय दुनिया कहाँ थी, आज हम कहाँ हैं और जग कहाँ है? | ` पाश्चात्य विद्वानों ने वेदो का कार चार हजार वषं দুল माना है। इसी को खोकमान्य बाल गंगाधर तिरक नें १० हजार वषं माना है । डा ° सम्पूर्णानन्द ने इनको भी शंका से परे नहीं रला है। कारण सारा वाग्वितण्डा अनुमान के बरु पर है। पाश्चात्य विद्वानों ने सारा विषय अनुमान के बल पर तय किया है। उन लोगों ने सत्य की खोज नहीं की । जो पाइचात्य लेखकों ने लिखा है उसे सत्य मान लिया गया। द भारतीय संस्कृत वाइमय और खासकर बढ़ा तत्कालीन चिन्तन, उनका ज्ञान, उनकी मंगलमयी लोक-कल्याण कामनाएँ हैं कि सभी आनन्द से रहें। यह सुन्दर आशीर्वाद केवरू एक ही व्यक्ति या जाति-विशेष के लिए नहीं है, उसमें समग्र विश्व शामिल है। इस कामना में एंक परि- वार-सा हृदय काम करता है। इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि जिस हिरण्यगर्भ से ख




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