भिक्षु जगदीश काश्यप | Bhikshu Jagdeesh Kashyap

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Bhikshu Jagdeesh Kashyap by उपेंद्र महारथी - Upendra Maharathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(८) लयमें ही उसने बौद्ध-विद्वानं शीलश्चदसे बौद्ध साहित्य भौर दशेन का अध्ययन किया था। यहीं के पुस्तकालय से वह दर्जनों बौद्ध ग्रथों कौ पांडुलिपियो तैयार कर चीन ले गया और विदेशी विद्वानों को नालन्दा का गौरवमय परिचय ह वेनसांग के घीनौ ग्रथों से ही मिला था। धतः नालन्दा में उसके एक मेमोरियल भवन का निर्माण विश्वत्रन्धुत्व के विचार से आवश्यक था। काश्यपजी ह वेन-सांग के शरौरावदेष प्राप्त करने के लिए चीन गये और उनके सत्प्रयास से जब वह प्राप्त हो गया, तब ससमारोह तालन्दा लाया गया । उसी शरीरावशेष के ऊपर नालन्दा में ह वेनसांग का महान स्मारक काश्यपी ने खड़ा कराया, जो भाज उनके कोतिस्तम्भ बनकर दूर से ही यात्रियों का ध्यान आाकृष्ट करता रहता है। इन कार्यों के साथ विदेशी छात्रों के लिए वृत्ति और निवास की व्यवस्था भी कराई | आज उसी का परिणाम है कि विदेशोंसे विध्यां पुन: ज्ञान-तीथे नालन्दामे अने लगे हैं जोर ज्ञान तथा दर्शन की शिक्षा शान्‍्त चित्त होकर प्राप्त कर रहे हैं। यह काश्यपजी के हौ उद्योग गौर परिश्रम का वरिणाम है कि नालन्दा वपने पूवं गौरवकी लोर निरन्लर अग्नत॒र होता जा रहा है । पूर्णहप से सुव्यवस्थित पालि-शोध-प्रतिष्ठान में भध्ययन-अध्यापन का कायं जव निर्बाध चलने लगा, तब ५० भागों में त्रिपिठक के तथा पालि में लिखित अन्यग्रन्थों के देवनागरी लिपि में रूपान्तरण कर प्रकाशित करने की योजना कश्यप जी ने तैयार की, जिसे सरकार ने स्वीकार कर लिया। यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण था, जिसे कार्यान्वित करने के! भार काश्यपजी को ही 4हन करना था अतः उन्होंने पालि« शोध प्रतिष्ठान के निदेशक-पद को त्यागकर इस गुरुह्वर काये का उत्तर- दायित्व अपने ऊपर ले लिया। ग्रथों के प्रकाशन का मुद्रण पठना तथा किसी अन्य स्थान में सम्भव नहीं था, अतः वाराणसी में इसके मुद्रण की व्यवस्था की गई। नागरिक लिपि में रूपान्तरित त्रिपिठक के सम्पादन तथा मुद्रणकार्य को सुव्यवस्थित करने के निमित्त काश्यपजी वाराणसी चले गये और यहीं स्थायी रूप से रहने सगे । देवनागरी लिपि में रूपा- स्तरित त्रिपिटक के ४१ खण्ड इनके सम्पादकत्व में ही प्रकाशित हुए । वाराणसी वास के समय काश्यपजी ने संस्कृत-विश्वविद्यालय (काशी) में पालि विभाग के अध्यक्ष पद को भी स्वीकार कर लिया था, जिससे पालि जोर पालि-साहित्य के प्रचार-प्रसार में और अधिक बल मिला । त्रिपिढक




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