कवि विद्यापति | Kavi Vidhyapati
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
185
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सामान्य-परिचय ঙ
देख देख राधा रूप अपार,
अपरुब के बिहे आन मिलाओलछ ,
खितितल लावनि-सार ।
अंगहि अंग अनंग मुरछायत,
हेरये पड़ये अथीर।
मनमथ कोटि मथन कर् जे जन,
से हेरि महि-मधि गीर ।
कत् कत छखिमी चरन-तर नेओशये,
रगिनि हेरि बिमोरि।
कृरु अयिखाष मनहि पद-पकज,
अहोनिसि कोर अगोरि।
राधा की सौन्द्ये-विभूति की यह महिमा है, जिसने अपनी अपूर्वता से बह्मा
को अपूर्वं बना दिया है} जिसकी प्रभविष्णुता से सुग्ध होकर करोड कामदेवो
का मानमर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। जिस सौन्दर्य-
शालिनी को देखते ही मुग्ध हो कितनी लक्ष्मियोँ को न््योछावर किया जा
सकता हे । विद्यापति की यह अभिलाषा है किं उनके चरण-कमर को दिनि-रत
गोद में यत्न-पूर्वंक आदरणीय बनाये रखे ।
जिस प्रकार राधा के सौदर्य की अचूक प्रभविष्णुता से कृष्ण अनुप्राणित हें,
उसी प्रकार कृष्ण के रूप-बेभव पर राधा भी मसुग्ध हैं :--
की रागि कौतुक देखलो सखि
निमिष लोचन आध
मोर मन-मृग मरम बेधल
विषम वान वेध |
श्रीकृष्ण की अनुपम सौदर्य-श्री का अदूभुत-चमत्कार ह ¡ जिसका क्षण भर
के लिये आधी लौ से साक्षात्कार होते ही प्रेम के तीत्र आकर्षण ने व्याघ के
ऋर प्रहार की भॉति राधा के मुग रूप मन को मर्म-स्थल की चोट पहुँचा दी ।
आत्म-सपपंण की इस मुग्धतावद्धिनी स्थिति का परिचय वह सखी को इस
प्रकार दे रही हैं :---
ए सखि पेखलि एक अपरूप,
सुनइत मानवि सपन-सरूप ।
कम जुगछ पर चाँद क माला,
तापर उपजल तरुन तमाला।
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