सुलह की जंग : गंगा तरंग | Sulah Ki Jang : Ganga Tarang

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sulah Ki Jang : Ganga Tarang by स्वामी रामतीर्थ - Swami Ramtirth

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about स्वामी रामतीर्थ - Swami Ramtirth

Add Infomation AboutSwami Ramtirth

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
आनन्द «ॐ अवसर जब पाते हैं, तो उसके बाद बरसों अपने इष्ट-मिन्नों में बैठकर बड़े अभिमान से इसका चिक्र किया करते है ), किन्तु इस समय हमारे बावूजीकी आंखों मे संसार উহা ভন হী रहा है। ज्ञाट साहब की गाड़ी पास से निकल गई, और इनको मालूम दही नहीं पडा, सलाम तोक्या करते! टाम के भीतर दाहिनी ओर से मीठी-मीठी आवाज़ यह क्या आ रही है ? जुंबिश में होंठ ऐसे हैँ नाज्ञकं नफस के साथ ; जैसे दिले नसीम से पत्ती गुलाब की। “हुजूर ! आपके तेजोमय लल्लाट पर विषाद ( उदासीनता ) क्यों है ? आज सुख-मंडतल पर तेज क्यों नहीं बरसता ९ बह कान्ति क्‍या हुई ९ इंश्वर के लिये हमें तो दया-दृष्टि से वंचित न रखियेगा ।” प्यारे पाठक ! जानते हो, यह किसकी आवाज़ थी ९ यह एक चंद्रमुखी, चंद्र-बदनी, उबंशी ईर्ष सुन्दरी का बोलना था; जिस पर बाबू साहब का चित्त चिरकाल से आसक्त था, जिसके मिलने का ख्याल कभी छूटता ही न था, जिसका चित्र हृदय के दपण पर हृढ़ता-पूवक अंकित था, जो तनिक काम-धंधे का आवरण उठा, और चट दृष्टि उधर पड़ी ! आज वह चंद्रमुखी, सुन्दर सगनयनी, माधुरी हाव-भाव के साथ बाबू साहब से चाग्विलास कर रही है। किन्तु हाय | हृदय-कमल पर केसी तुषार-वर्षा हो गई कि अ्रकाशमान्‌ सूय तो उदय हुआ; पर यह ( कमल ) न खिला-- लब अज़ गुफ़्तन चुनाँ बस्तम कि गोड ; दहन बर चेहरा ज़ख़से-बूदो-बेह शुद्‌ । अथ--मैंने बोलने से ओंठ इस तरह बन्द कर लिए, मानों मुँह चेहरे के ऊपर एक घाव था और वह अच्छा हो गया । পসরা এসপি १ हिलना । २ कोमल श्वास | ३ समीर |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now