सीधी चढ़ान | Seedhi Chadan

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Seedhi Chadan by मंजुला वीरदेव - Manjula Veerdev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थोड़े दिनों बाद एल-एल० बी० में पढ़ने वाले दो मित्रों के साथ मिलकर मैंने निश्चय किया कि हम तीनों कमरा लेकर इकदठे रहें । हम तीनों कमरा तलाश करने के लिए निकले | जहाँ जाते, वहीं प्रइन होता था--“स्त्री है क्या ?” “खटला हाय का ?” और हमारे नहीं कहते ही हमें कोरा जवाब मिल जाता था। “हम श्रच्छे आदमी हैं--हमारे इस प्रमाणपत्र की उनके लिए कोई कीमत नहीं थी । मेरे पुराने मास्टर? की बात सच थी--“स्त्री-हीन पुरुष विश्वसनीय कैसे हो सकता है ? ” अन्त में काँदावाड़ी में 'कानजी खेतसी” की चाल में “भैया (चौकी- दार) की मनाही की अवहेलना करके हम ट्रस्टी के पास पहुँचे, जो बहीं बेठे हुए थे । ट्स्टी ने मेरा नाम सुनकर पूछा--“डाकोर में जो श्रभुभाई मुन्शी थे, उनके तुम कोई सम्बन्धी होते हो ?” “हाँ, मैं भतीजा हूँ, मैंने कहा । “भैयाजी,” ट्रस्टी ने आज्ञा दी, “इनको अ्रच्छी खोली (कमरा) दो ।” उन्हीं चालों का एक दिन में ट्रस्टी बनूंगा, इसकी कल्पना मैंने उस समय स्वप्म में भी नहीं की थी । हमने जो कमरा लिया, उसके पास ग़रीब वर्ग के मारवाड़ी रहते भे । सुबह आठ बजे से लेकर रात तक पुरुष लोग काम पर जाते और चाल के हमारी ओर के हिस्से पर मारवाडिनें राज्य करती थीं। इससे शाम को चार बजे तक हम लोगों को कमरे में ही बैठे रहुना पड़ता था । इस प्रकार हमारो स्थिति बड़ी दयनीय हो गई । हमारा कमरा नल-पाखाने के सामने था| सुबह से नल पर स्त्रियाँ नहाना शुरू करतीं श्रौर नहाते समय दो स्त्रियाँ उनकी चौकीदारी करवीं, इससे हमें तो कमरे में ही घुसे रहना पड़ता था। दोपहर में वे सब चाल में बैठकर बाल सँवारतीं। उस समय भी हमें दरवाज़े बन्द ही रखने पड़ते थे । वे आपस में लड़तीं-भिड़तीं, बेहद शोर मचातीं, पर दरवाजा खोलकर हम त्रिया-राज्य का तूफ़ान देखनेकां श्रानन्द भी नहीं ले १. श्रे रास्ते, प्रष्ठ १४५ । २० सीधी चढ़ान




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