भारतीय संगीत में लय और ताल का रस सिद्धान्त में सम्बन्ध | Bhartiya Sangeet Mein Lay Aur Taal Ka Ras Siddhant Mein Sambandh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मार्ग संगीत में शास्त्रीय नियमों का कटिबद्धता से पालन किया जाता है तथा इसके अन्तर्गत विशेष प्रकार की शिक्षा पद्धति, गहन अभ्यास , परिपक्वता ओर कला सौन्दर्य आदि मूल तत्व आते हैं । देशी सगीत में लोकरूचि ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। शास्त्रीय नियमों कै पालन की कठोरता इस प्रकार के संगीत पर लागू नहीं होती । इस संगीत की विषय वस्तु सहज संस्कारों से प्रभावित होती है ओर प्रस्तुतीकरण अत्यन्त प्वच्छन्दतापूर्ण लय, ताल ब्द ओर कला सौन्दर्य से परिपूर्ण होता है। धरवपद, ख्याल आदि शास्त्रीय संगीत के कठोर नियमों के अन्तर्गत प्रस्तुत होते है उपशास्मीय सगीत मे ठुमरी, तराना , टप्पा , भजन, गीत, कव्वाली आदि आते हैं। हृदय गत भावों का प्रकट करने के सफल साधन के रूप में संगीत की सत्ता सर्वत्र मान्य है । प्राणी मात्र का रोदन, चीत्कार हास्य इत्यादि क्रियाओं से जनित ध्वनियोँ शाश्वत रही हैं । अनेकों मानवीय भावों को प्रकट करने वाली ये ध्वनियाँ ही सगीत को भावाभिव्यक्ति का सफल माध्यम बना सकी। इसीलिये संगीत रसों के अभिव्यक्त करने में अधिक समर्थ हो सका । लोक संगीत में, साहित्य मेँ उल्लिखित सभी रसो का समावेश अनुभव होता है। श्री अर्नेस्ट হুঁ ने अपनी पुस्तक स्पिरिट आफ म्युजिक में लिखा है, - “संगीत केवल सामान्य ध्वनि नही अपितु यह सूक्ष्म अर्न्तवृत्तियों के उद्घाटन का सबल साधन है। इसी प्रकार के विचार {८ - ने अपनी पुस्तक में व्यक्त কির ই শি451০ 15 102 +२०.००६०ए८७७ 1 ९८ ९० 16 ৩৮৮০১৬৭০৮১০ ९५५५1 {८(€ ^




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