वक्रोक्ति और अभिव्यंजना | Vakroati Aour Abhivynijana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वक्तव्य अन्य शासत्रोके समान साहित्य-शासत्र भी एक शाखत्र है जिसके कुछ अपने सिद्धान्त है, यह शाख सादित्य-सर्जनकी प्रेरणा, प्रक्रिया एव प्रभावके विपयमे सिद्धान्त स्थिर कर आलोचकको दृष्टिदान दिया करता है । आजके हिन्दी-आलोचककी दृष्टि भारतीय साहित्य-शाचकी परम्पराके साथ-साथ विदेशी साहित्य-समीक्षाके अनाकलित अध्ययनसे आविल हो उठी दे) आलोचनाकी प्रचलित सरशणियोका---मनोवेज्ञानिक एवं व्याख्यात्मक, प्रभाव- वादी, देश-काल ओर परिस्थितिकी भूमिकामें साहित्यकी मीमासा करनेवाली, अतश्रेचतना-निरूपक समीक्षाओका, एक दूसरेसे असम्पृक्त होना ही इस बात- का निदशंक है कि वे एकाङ्की है । इस शाश्चकी वैज्ञानिक मर्यादा स्थिर रखनेकेः लिए यह आवश्यक प्रतीत होता हे कि साहित्यगत तथ्योका विश्लेषण कर आवारभूत सिद्धान्त निरूपित किये जायें ओर उन्हींके द्वारा साहित्यका समीक्षण हो, अन्यथा साहित्य-शाख्र एक स्वतन्त्र शाश्च न होकर राजनीति, अर्थनीति आदि शाख््रोसे परिचालित होगा जिससे उसकी वेज्ञानिकता विनष्ट दो जायगी । साथ ही साथ, यह बात भी अपेक्षित है कि भारतीय साहित्य- शासत्र एवं पाश्चवात्य साहित्य-समीक्षाकी तुलनात्मक मीमासा की जाय जिससे शासत्र-विवानमे बहुमूत्य एवं स्थायी तत्त्वोका नियोजन हो सके । सम्प्रति हिन्दी साहित्य-शात्रकी मुख्य रुपसे प्रभावित करनेवाले तीन प्रमुख पाश्चात्य 'दाशनिक? है-बेनेडेड्रें कोचे, सिगसण्ड फ्रायड' एवं काले- माक्सं । माक्संके सिद्धान्तको माननेवाले “इतिहासकी आशिक व्याख्याःका साहित्य-शास्रमे प्रयोग करते है ओर इसलिए उनके साहित्यिक सिद्धान्त बहुत कुचं अरथंनीतिके पुच्छभूत एव राजनीतिके अनुगामी होकर रह जति दे । सिगमण्ड फायडसे प्रभावित आलोचक काव्यको विकारम्रस्त ( एव्नामंल ) ৯১ मनकी प्रकलियोकी अभिव्यक्ति मानते है अतएव काव्यसर्जन, जो मनकी




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