हिन्दी नाटक साहित्य में संवाद शिल्प का विकास | Hindi Natak Sahitya Me Sambad Shilp Ka Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 7 ) हिन्दी मँ शिल्प शब्द का अर्थं है कारीगरी अर्थात्‌ प्रस्तुत करना । अतः शिल्प के अन्तर्गत वे समस्त तत्त्व आ जाते हैं जो नाटक रूप का निर्माण करते हैं । वे तत्त्व क्या हैं ? लेथरोप ने शिल्प के निम्नलिखि तत्त्व बतलाये हैं--1. कथानक 2. चरित्र 3. कथोपकथन 4. परिप्रेक्ष्य 5. ( क ) शैली ( ख ) भाषा-शैली । एक अन्य तत्त्व भी है जो प्रत्यक्षतः शिल्प का अंग नहीं है किन्तु नाटक शिल्प को सर्वाधिक प्रभावित करता है । वह है लेखक का दर्शन अथवा दृष्टिकोण । मानव जीवन में नियति का स्थान महत्वपूर्ण है । नियति दृश्य तथा अदृश्य रूप में मानव से अनेक कृत्य करवाती है, वह अनेक घटनाओं की विधायिका होती है । नियति की भांति ही नाटकों में दृष्टिकोण की स्थिति है । कालिंग वृड ने शिल्प की स्वरूप-व्याख्या पर प्रकाश डाला है--( । ) शिल्प में साधन और साध्य में विभेद होता है--दोनों एक दूसरे से संबंधित होते हुए भी एक दूसरे से भिन्‍न होते हैं । जिन मशीनों का औजारों से कोई वस्तु बनती है, वे उस वस्तु से प्रथक होते हैं .। यदि काव्य का ही उदाहरण लें, तो इसमें साधन और साध्य क्या है ? कागज, कलम आदि को लेखन का साधन कह सकते हैं, काव्य का नहीं । कविता तो केवल मन में भी रची जाती है । जिस श्रम से किसी वस्तु का बनना सम्भव नहीं, लोहार, बढ़ई आदि केवल श्रम से कोई भी वस्तु नहीं बना सकते । तात्पर्य यह है कि शिल्प में उपस्थित साधन और साध्य का भेद होता है । ( 2 ) शिल्प मेँ योजना और उसकी कार्यान्वति की बात रहती है । शिल्पी किसी वस्तु के निर्माण के पहले अपने मन में उसकी निश्चित रूप-रेखा बना लेता है, फिर उसे कार्य में परिणित करता है । कलाकार कभी-कभी भले ही किसी पूर्ब निश्चित योजना के अनुसार काम करता हो,“ पर सामान्यतः निर्माण की प्रक्रिया में ही रचना की रूप-रेखा निश्चित होती जाती है । ( 3 ) पूर्व निश्चित योजना के अनुसार काम करने में कृति का रूप पहले से ही निश्चित रहता है । ( 4 ') शिल्प में रूप और वस्तु का भेद होता है । वस्तु का तात्पय है कच्चा माल, जिससे कोई वस्तु एक निश्चित रूप ग्रहण करती है । कच्चे माल का कोई रूप अवश्य रहता है, पर यहां तैयार माल के रूप में उसका परिवर्तन होता है । यदि अनुभूति को कच्चा माल कहें, तो कोई ।शल्पी केवल इच्छा से ही किसी वस्तु की रचना नहीं कर सकता, उसे किसी ठोस साधन की भी अपेक्षा होती है । शिल्प के तत्त्वों की व्याख्या कुछ साहित्यकार दो दृष्टिकोर्णों से करते हैं--आनन्‍्तरिक और बाहुय । आंतरिक से अर्थ है रचना संबंधी वे प्रक्रियाएं जो साहित्यकार के मन में घटित॑ होती हैं, और बाहुय से तात्पर्य भाषा और शब्द योजना के उन तरीकों और विधियों से है जिनकी सहायता से साहित्वकार अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है । अतः इन दोनों दृष्टिकोर्णों ' का संबंध साहित्य -सृजन की उन अदृश्य प्रक्रियाओं से है जो साहित्यकार के मन में छ्रढित होती है । इनमें से पहली प्रक्रिया प्रकट है और दूसरी अप्रकट ।




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