भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी | Bharteey Arya Bhasha Aur Hindi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२२ भारतीयन्यूरोपीय तथा भारतोीय-आर्य भाषाएँ प्राचीन ग्रीक, .थुसी (12205), फ्रीजी (शा ष्४६1205), आरमेनी ^ग160205)}, श्रां (भारतीय-ईरानी), जर्मन (©८१९), केल्ट (९15), तथा इटालियन जनों के पूर्व-पुरुष बने। अपने आद्य स्वरूप में भारतीय- यरोपीय या विरोस्‌' किसी भी प्रकार की उच्च ऐहिक संस्कृति का निर्माण करने में समर्थ न हो सके । हाँ, उनके पास एक आइचर्य-सुन्दर भाषा थी, और अनुमान है कि उनका समाज बड़े सुदृढ़ ढंग से संगठित था । उनकी उपजातियों का गठन विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों के बीच भी दढ़तापू्वंक ठोस खड़ा रहा और उनके संसर्ग में आनेवाले अन्य जनों पर.भी अपनी छाप छोड़ता गया । उनके समाज की रचना एक-विवाह एवं पितृप्रधात या पितृनिष्ठ पद्धति- वाले कुटुम्बों से हुई थी | यह पितृप्रधान कुटुम्ब ही भारतीय श्राय मे विद्यात गोत्र' या उपजाति की आधारशिला था, और इस प्रकार के कई गोत्र अपने- अपने प्रधान व्यक्ति के साथ सम्मिलित होकर एक 'जन' का निर्माण करते थे । भारतीय-पूरोपीयों कौ बुद्धि प्रखर थी, और उसके साथ व्यवहारकुशलता एवे समन्वय के गुण एकत्रित हो जाने से, वे सत्र अजेय-से हो गए थे । स्त्री पुरुषों के पारस्परिक सम्बन्धो में स्‍त्री को समादर की दृष्टि से देखा जाता था । वहया तो घर को अविवाहित कन्या के रूप में प्राथितन्या, रक्षणीया एवं पिता-शभ्राताश्रों द्वारा विवाह मे दातव्या थी; अथवा पत्नी के रूप में पुरुष की जीवन-संगिनी एवं सहधर्मिणी थी; अ्रथवा माता के रूप में गोत्र की आदरणीया पथप्रदर्शिका तथा परामशंदात्री थी । उन्होंने एक ऐसे धर्म की कल्पना की, जिसमें अलक्षित देवी सत्ताओं का संहारक की अपेक्षा पालक का स्वरूप ही अधिक माना गया था; और ये सत्ताएँ प्राकृतिक शक्तियों के रूप में ही कल्पित की गईं थीं । आँत्वान्‌ मेथ्ये (8०1०10० ४९॥।८) के शब्दों में, उनकी देव- शक्ति की कल्पना स्वर्गीय, तेजस्वी, भ्रमर एवं सुखंद शवित के रूप में थी; उनकी यह कल्पना आधुनिक यूरोप के किसी निवासी की भावनाओं से विशेष भिन्न नहीं है। मनुष्य पृथ्वी पर रहते हैं, परन्तु इन देवताओं का निवास- स्थान पृथ्वी से परे चुलोक में था। किसी प्रकार के मानवीकृत जीवों का-सा न होकर, इनके स्वरूपः का अनुमान शवितियों के रूप में ही किया गया था; यद्यपि इनके रूप का मानवीकरण भी विद्यमान था और इन मानवीकरण के विचारों पर भारतीय-यूरोपीयों के अ्रत्य ऐसे जनों, जो मानवरूप के देवताश्रों के विषय में अधिक सोच चुके थे, के संसर्ग में आने पर और भी प्रभाव पंडा फ़िर भी मिस्री और सुमेरी-अवककदीमों की तरह इनके देवी-देवता विचित्र एवं बहुतेरे न थे । कुछ प्राकृतिक शक्तियों को अवश्य इन्होंने देवरूप माना था ।




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