भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी | Bharteey Arya Bhasha Aur Hindi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
41 MB
कुल पष्ठ :
312
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ० सुनीतिकुमार चाटुजर्या - Dr. Suneetikumar Chatujryaa
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२२ भारतीयन्यूरोपीय तथा भारतोीय-आर्य भाषाएँ
प्राचीन ग्रीक, .थुसी (12205), फ्रीजी (शा ष्४६1205), आरमेनी
^ग160205)}, श्रां (भारतीय-ईरानी), जर्मन (©८१९), केल्ट (९15),
तथा इटालियन जनों के पूर्व-पुरुष बने। अपने आद्य स्वरूप में भारतीय-
यरोपीय या विरोस्' किसी भी प्रकार की उच्च ऐहिक संस्कृति का निर्माण
करने में समर्थ न हो सके । हाँ, उनके पास एक आइचर्य-सुन्दर भाषा थी, और
अनुमान है कि उनका समाज बड़े सुदृढ़ ढंग से संगठित था । उनकी उपजातियों
का गठन विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों के बीच भी दढ़तापू्वंक ठोस खड़ा
रहा और उनके संसर्ग में आनेवाले अन्य जनों पर.भी अपनी छाप छोड़ता
गया । उनके समाज की रचना एक-विवाह एवं पितृप्रधात या पितृनिष्ठ पद्धति-
वाले कुटुम्बों से हुई थी | यह पितृप्रधान कुटुम्ब ही भारतीय श्राय मे विद्यात
गोत्र' या उपजाति की आधारशिला था, और इस प्रकार के कई गोत्र अपने-
अपने प्रधान व्यक्ति के साथ सम्मिलित होकर एक 'जन' का निर्माण करते
थे । भारतीय-पूरोपीयों कौ बुद्धि प्रखर थी, और उसके साथ व्यवहारकुशलता
एवे समन्वय के गुण एकत्रित हो जाने से, वे सत्र अजेय-से हो गए थे । स्त्री
पुरुषों के पारस्परिक सम्बन्धो में स्त्री को समादर की दृष्टि से देखा जाता था ।
वहया तो घर को अविवाहित कन्या के रूप में प्राथितन्या, रक्षणीया एवं
पिता-शभ्राताश्रों द्वारा विवाह मे दातव्या थी; अथवा पत्नी के रूप में पुरुष की
जीवन-संगिनी एवं सहधर्मिणी थी; अ्रथवा माता के रूप में गोत्र की आदरणीया
पथप्रदर्शिका तथा परामशंदात्री थी । उन्होंने एक ऐसे धर्म की कल्पना की,
जिसमें अलक्षित देवी सत्ताओं का संहारक की अपेक्षा पालक का स्वरूप ही
अधिक माना गया था; और ये सत्ताएँ प्राकृतिक शक्तियों के रूप में ही कल्पित
की गईं थीं । आँत्वान् मेथ्ये (8०1०10० ४९॥।८) के शब्दों में, उनकी देव-
शक्ति की कल्पना स्वर्गीय, तेजस्वी, भ्रमर एवं सुखंद शवित के रूप में थी;
उनकी यह कल्पना आधुनिक यूरोप के किसी निवासी की भावनाओं से विशेष
भिन्न नहीं है। मनुष्य पृथ्वी पर रहते हैं, परन्तु इन देवताओं का निवास-
स्थान पृथ्वी से परे चुलोक में था। किसी प्रकार के मानवीकृत जीवों का-सा
न होकर, इनके स्वरूपः का अनुमान शवितियों के रूप में ही किया गया था;
यद्यपि इनके रूप का मानवीकरण भी विद्यमान था और इन मानवीकरण के
विचारों पर भारतीय-यूरोपीयों के अ्रत्य ऐसे जनों, जो मानवरूप के देवताश्रों
के विषय में अधिक सोच चुके थे, के संसर्ग में आने पर और भी प्रभाव पंडा
फ़िर भी मिस्री और सुमेरी-अवककदीमों की तरह इनके देवी-देवता विचित्र एवं
बहुतेरे न थे । कुछ प्राकृतिक शक्तियों को अवश्य इन्होंने देवरूप माना था ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...