आध्यात्मित ज्योति | Adhyatemik Joti

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Adhyatemik Joti by धर्म दिवाकर - Dharm Divakarसुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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सुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मकता हे किन्तु विपयासक्ति के कारण मनुत्य चिकारों से िमुन्त होने था पुरुष नहीं कर्ता है और देव की गोद म बच्चे की तरह साया करता है । आत्मलिकास के लिए गीता का यह उपदेश विश्व के लिए हिंतपद ४ उद्धेदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेत्त । आत्मैव हात्मनों चम्घुगत्मव रिपुरात्मन 1५ अध्याय ६॥। -- अपने द्वारा अपनी आत्मा वा उद्धार को और अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे क्योंकि जीवात्मा आप ही अपना मित्र है आप ही अपना शन्नु है। चहे जीव आत्मशक्ति तथा कर्तन्य को भूलकर ग्वय का गात्ु सन रहा दे । यह अपने अपल्य नग्जन्प को विषयभोग में व्यतीत करता है । बालस्तावत्‌ क्रीडासक्त तरुणम्तावत्‌ तरुणीरक्त । वृद्धस्तावत्तू चिन्तामम्र परमे ब्रह्मणि कोपि न लग ॥ इसका भाव इस हिन्दी पद्य में दिया गया है .- खेलकृद में बीता बचपन रमणी राग रंग-रत यौवन । शेष समय चिन्ता में डूबा इससे हो कव ब्रह्माराधन ॥। जिस प्रकार कुम्भकार का चक्र पूर्व सस्कार के प्रभाव से पुन गमन रेतु प्रेरणा न मिलने पर भी भ्रमण करता हे इसी प्रकार जिनके पास आत्पशोधन तथा जीवन को विशुद्ध वनाने योग्य सर्व प्रकार की अनुकृलता रहती है वे कीर्ति की लालसा से बाहर से आकुलताओं को खरीदने का प्रयत्न करते है ओर दोप कर्मों को देते फिरते हे । कवि भूधरदास जी ने लिखा हे- सुवुद्धि रानी से उसकी एक सखी कहती है कि तेरा पति आत्मदेव दु खी हो रहा है । वह तो बहुत अच्छा हे किन्तु इस पुद्ल जड तत्त्व ने उसे कष्ट में डाल दिया है। कवि के शब्दो में - कहै एक सखी सुन री सुचुद्धि रानी । तेरा पति दुखी देख लागे उर आर है॥। महा अपराधी एक पुद्रल है छहों माहि। सोई दु ख देत दीखे नाना परकार है ॥। ३ भज गोविन्द स्तोत्र-चक्रवर्ती राजगोपालाचारी पृ०७ गए ससनर ग्यारह




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