विज्ञान परिषद् अनुसन्धान पत्रिका | Vigyan Parishad Anusandhna Patrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारत में कृषि विकास 211 पिछले किसी भी वर्ष के उत्पादन से अधिक था। भारत के साथ-साथ कई अन्य उष्णकटिबंधी (5০1০8) तथा उपोष्णकटिबंधी (5757०%००७) देंशों में इसी तकनीक के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन में प्रभावशाली बढ़त हुई है। 1968 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के डॉ० विलियम गैड ने अनाज उत्पादन में हो रहे इस क्रांतिकारी परिवर्तन को “हरित क्रांति'” का नाम दिया। भारत में हरित क्रांति का प्रादुर्भाव सही अर्थों में 1967-68 से ही हुआ है। हरित क्रांति के आने के बाद से भारत में खाद्यान्न की उपज में वृद्धि हो रही है, हालाँकि भारतीय खेती के मुख्यतः. मानसून पर निर्भर होने के कारण उत्पादन में कुछ उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। खेतों के लिए उत्तम बीज, सिंचाई के साधन, उर्वरक तथा कीटनाशी दवाओं की खरीद के लिए भारत सरकार ने किसानों को बैंकों तथा सहकारी वित्त संस्थाओं द्वारा कृषि ऋण (व्छाण्पाध्पा्‌ लन्ता देने की व्यवस्था की है। साथ ही किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (कपंपोपापप 500201101০6) पर सरकारी एजेचियो द्वारा खाद्यान्न खरीदने की व्यवस्था भी की गई हे। किसानों को इस प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त हो जाने से भारत में हरित क्रांति को और बढ़ावा मिला है। स्वतंत्र होने के समय से वर्ष 1999-2000 तक देश में 208.9 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ। देश अब खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है। 1988-89 से देश में चुने हुए 169 जिलों में चलाए जा रहे विशेष खाद्यान्न उत्पादन प्रोग्राम (59००॑ब#००वछक्चाए5?700प०0०1 शट्टा्षागा1०) द्वारा 1989-90 में 18.5 करोड़ टन अनाज उत्पादन का लक्ष्य रखा गया। जैसे जैसे उत्पादन बढा, भारत ने विदेशों से खाद्यान्न का आयात भी कम कर दिया गया। यह आयात 1967 के 87 लाख टन से घट कर 1972 में केवल 5 लाख टन ही रह गया। हाल में भारत से विदेशों को कुछ खाद्यान्न निर्यात है किया गया है। अनाज के अतिरिक्त देश अब कपास तथा जूट उत्पादन में भी आत्मनिर्भर हो गया है। फसलों की उन्नत किसमें आधुनिक खेती में उच्च पैदावार वाली किस्मों की फसलों का बहुत अधिक महत्त्व है। हरित क्रांति के लाने में इन किस्मों का सबसे महत्त्वपूर्ण हाथ है। नई किस्मों का विकास वर्तमान किस्मों से संकरण (००४»॥४) द्वारा किया जाता है। आधुनिक कृषि की एक अत्यन्त महत्तवपूर्ण उपलब्धि ` गेहूं तथा धान की उच्च पैदावार वाली बौनी किस्मों (6४७8) का विकास है । गेहूँ की बौनी किस्मों का विकास डॉ० नारमैन ई० बोरलॉग तथा उनके सहयोगियों द्वारा मेक्सिको के इन्टरनेशनल सेन्टर फॉर वीड एेण्ड मेज्ञ इम्भ्रूवमेन्ट मे किया गया। उन्होने बौना करने वाली जीन (कण०8 5676) के स्रोत के लिए गेहूँ की ““नारिन-10”” नामक जापानी किस्म का प्रयोग किया था। गेहूँ की उच्च पैदावार वाली नई किस्मों के विकास के लिए डॉ० बोरलॉग को 1970 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्‌ 010018700010181064,8700100151559680) ন লাললিন ক্ষিঘা জিল্তীল मेक्सिको से सोनोरा-64 तथा. लर्मा राजो नामक गेहूँ की बोनी किस्मों को मंगाया। इन्हीं किस्मों से कल्याण सोना तथा सोनालिका नामक्‌ किस्म भारत में विकसित की गई। एक दशक से भी अधिक समय तक भारत मे गेहूं की ये किस्म लोकप्रिय रहीं । भारत मेँ अब अधिकांशतः गेहूं की बौनी किरमे हीः उगाई जाती




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