कृष्णकान्त का विल | Krishnakant Ka Vil
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
166
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला खंड १३
कटा, “वह् असली विल चुरा कर जाली विल उसरी जगह रख
आना होगा। हमारे मकान में तुम आतो-जाती हो, तुम बुद्धिमतो
हो, तुम अनायास कर सकती हो । मेरे लिए यह करोगी १”
रोहिणी कॉपी । कहा, “चोरी १ मुझे काट डालने पर भी नहीं
कर सकूँगी ।”
हर०--श्ली ऐसी हो असार है, सिङ्ग बातो की राशि है।
क्या यही इस जन्म के लिए तुम मेरा ऋण चुका नहीं सकतीं ९
रो०--और जो छुछ कहे, सब कुछ कर सकती हूँ । मरने के
कदे मर सकती हूं, किन्तु यह् विश्वासवात का काम नही कर
सकती ।
हरलाल किसी तरह रोहिणी के सहमत न कर सकने पर
हज़ार रुपये के नोट रोहिणी के हाथ ঈ देने के चले | कहा, यह
हजार रूपया पेशगी इनाम लो । यह काम तुम्हे करना होगा।”
रोहिणी ने नोट न लिया । कहा, “रुपया की आशा नहीं करती ।
मालिक को कुल जायदाद देने पर भी नहीं कर सकती । करने के
होता तो आपकी बात से ही करती ।”
हरलाल ने लम्बी सॉस छोड़ी, कहा, “मैने सोचा था, रोहिणी
तुम मेरा भला चाहती ইা। लेकिन दूसरे अपने नहीं होते । देखा,
अगर आज मेरी खी रहती तो मै तुम्हारी खुशामद न करता। वही
मेरा यह काम कर देती |”
अब की रोहिणी मुसकराई | हरलाल ने पूछा, “मुसकराई क्यो ९”
रो०आपकी ञ्ली के नाम से वह विधवा-विवाहवाली बात
याद आई। सुना, आपने विधवा-विवाह किया है ९
हर०--इच्छा तो है--लेकिन मन जैसा चाहता है वैसी विधवा
मिलती कहाँ है ?
रो०--खैर विधवा ही हे और सेहागिन ही है।-कहती हैँ, विधवा-
विवाह दी हो, कुमारी ही हो,--एक विवाह कर संसारी होना अच्छा
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