कृष्णकान्त का विल | Krishnakant Ka Vil

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Krishnakant Ka Vil by वन्किमचंद्र चट्टोपाध्याय- Vankimchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला खंड १३ कटा, “वह्‌ असली विल चुरा कर जाली विल उसरी जगह रख आना होगा। हमारे मकान में तुम आतो-जाती हो, तुम बुद्धिमतो हो, तुम अनायास कर सकती हो । मेरे लिए यह करोगी १” रोहिणी कॉपी । कहा, “चोरी १ मुझे काट डालने पर भी नहीं कर सकूँगी ।” हर०--श्ली ऐसी हो असार है, सिङ्ग बातो की राशि है। क्या यही इस जन्म के लिए तुम मेरा ऋण चुका नहीं सकतीं ९ रो०--और जो छुछ कहे, सब कुछ कर सकती हूँ । मरने के कदे मर सकती हूं, किन्तु यह्‌ विश्वासवात का काम नही कर सकती । हरलाल किसी तरह रोहिणी के सहमत न कर सकने पर हज़ार रुपये के नोट रोहिणी के हाथ ঈ देने के चले | कहा, यह हजार रूपया पेशगी इनाम लो । यह काम तुम्हे करना होगा।” रोहिणी ने नोट न लिया । कहा, “रुपया की आशा नहीं करती । मालिक को कुल जायदाद देने पर भी नहीं कर सकती । करने के होता तो आपकी बात से ही करती ।” हरलाल ने लम्बी सॉस छोड़ी, कहा, “मैने सोचा था, रोहिणी तुम मेरा भला चाहती ইা। लेकिन दूसरे अपने नहीं होते । देखा, अगर आज मेरी खी रहती तो मै तुम्हारी खुशामद न करता। वही मेरा यह काम कर देती |” अब की रोहिणी मुसकराई | हरलाल ने पूछा, “मुसकराई क्यो ९” रो०आपकी ञ्ली के नाम से वह विधवा-विवाहवाली बात याद आई। सुना, आपने विधवा-विवाह किया है ९ हर०--इच्छा तो है--लेकिन मन जैसा चाहता है वैसी विधवा मिलती कहाँ है ? रो०--खैर विधवा ही हे और सेहागिन ही है।-कहती हैँ, विधवा- विवाह दी हो, कुमारी ही हो,--एक विवाह कर संसारी होना अच्छा




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