अपराजिता | 1328 Aprajita; (1939)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) दिया गया रै । पूर्वर्ती स्थूल लोकोत्तरता के स्थान पर य॒ सुल्मतर अभिव्यक्ति छायात्मक ही कद्दी जा सकती दै । इस, काव्य कौ आध्यात्मिकता भी सुस्पष्ठ है यद्यपि वह रुढ़ अध्यात्म नहीं है | अधिकाश छायावादियों की दार्शनिक भित्ति वेदान्त या उपनिषद दै । वे आत्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त उनके काव्य में दो मुख्य विशेषताएँ ऐसी हैं जो उन्हें आध्यात्मिक सिद्ध करती हैं | प्रथम तो उनमें दुःख या निरात्म श्रन्तिम सिद्धान्त के रूप मे गदीत नदीं 1 दूसरे उनमे स्थूल इन्दरियता का कदं भी उत्लेख नहीं है 1 उनकी सोन्दयं भावना है मानवीय किन्तु अतिशय सूक्ष--आध्यात्मिक | मेरे इस कथन के अपवाद भी सम्भव है मिले, किन्तु उन अपवादों से नियम की पुष्टि ही होगी। दुःख के आलंकारिक वर्णन तो बहुत मिलेंगे किन्तु दुःख सें दूवा हुआ निरात्म दशन छायावाद में विरलता से प्रात होगा | दुःख की वास्तविक और प्राजल अमिव्यंजना मुझे 'कामायनी? काव्य के कुछ स्थलों में जैसी प्रखर, उत्तत और अंधकाराच्छुन्न मिली, अन्यत्र वेसी कहीं नहीं देख पड़ी | किन्तु दुःख रूप दर्शन और तज्जन्य विद्रोह छायावाद काव्य में नही देख पड़ता | यह विद्रोह उस अवस्था का द्योतक होता जब दुःख की सत्ता अखंड' जीवन की अनुभूति को असम्भव कर देती । जब शैल शिखर के नीचे आकर यात्री निर्षाय होकर रुक जाता। भमद्दादेवी वर्मा जी का दर्शन यद्यपि दुःख पर स्थित है, किन्तु वह दुःख बौद्धिक और आध्यात्मिक भूमि में उतरने का उपक्रम मात्र वन गया है | इन्द्रियता के सम्बन्ध में छायावाद काव्य स्थूल भूमि पर नहीं उतरता । उसको अभिव्यक्तियाँ उच्च मानसिक स्तर पर हैं और अधिकांश छाया रूप कहीं-कहीं, जैसे पंत जी की उच्छवास की वालिकाः श्रीर श्मन्थि के वर्णुनों में जहाँ साकारता आए, बिना नहीं रही, वहाँ भी वह साँकेतिक ही रक्खी गई है। कुछ आलोचक तो इसी साकेतिकता को छायावाद




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