तत्त्व समुच्चय | Tattv Samucchya

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Tattv Samucchya by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ भावक ओर सुनि का आचार धामिक सिद्धान्त. के भीतर प्राय: गावा, गौर दनं इन दो शास्त्रों की समावेदा किया दाता है । जैन बाचार की मुलभित्ति हूँ ' अहिताः 1 इसी कारण ब्रह्मा अहिसा-का अति सूक्ष्म विवेचन किया गया है। हिंसा केवल किसी जीव का धत्तं करने या उसे चोट पहुंचाने से ही नहीं होती, किन्तुं कियों प्रेकार व किसो मो अल्यात्यल्प मादा में उसे हानि पहुंचाने या उसका विचार मात्र करने से भी हीती हूँ । 'यह अहिसक भावना केवल मनुष्य के प्रति ही नहीं, किन्तु छोटे से छोटे जीव के प्रति भी रखने योग्य दतलाई गई हैं । मन मे, वचन से व काय से कृत, कारित व अंनुमोदित हिंसा पाप रूप हूँ । जैन शास्त्रों में घरामिक जीवन की यही एक सर्वोपरि कतप्तोटी मानी गई हूँ । सभ्य पुरुष वही है जिस के द्वदय में प्राणि- मात्र के प्रति हिंसा का भाव न हो। यह तो है गहरा का नियेधात्मक रूप । उस का विधानात्मक स्वरूप पाया जाता है पश्रोणिमात्र के श्रत्ति मैत्री व परोपकार जाव॑ रखने में 1 * परोपकार: पण्याय, पायोय पररीडनम वे ' अश्िसापरमो धर्म: ? जन आचार के मूल मंत्र हैं। इस अहििसात्मक वत्ति को जोवन में उत्तारने के छिये पांच ब्रतों का विधान क्रिया गयां द--अर्हिता, अनया; अचौ; अमेयुन और अपरियग्रह। यदि हम समाज के संचयं व सम्य संसार के दए्ड-विवान का विश्लेषण करके देखें तो दायेंगे कि मनुष्य-कृत समस्त अपराधों क्रा मूल या तो किसी जीव को'* चोट पहुंचाना है, या किसी दूसरे को वस्तु को छोन लेना, या कियी स्वार्थवश्ञ झूठ बोलना. या दुराचार करना अथवा अमर्यादित धन संचय करने को प्रवृत्ति गे दं 1 उपयुक्त पांच ब्रतों का प्रतिपधादन इन्हीं समाजगत मु दोषों को दृष्टि में रखकर किया गया है । गृहस्य श्रावक इनका पालन स्वृ् रूप से ही कर सकता हूँ, इसछिये उक्त पांचों त्रत का विधान श्रावक्राचार में “ अषुव्रतों के रूप में पाया जाता £1 दोय गषब्रतों व शिक्षात्रतों का उपदेश इन्हीं मूल ब्र॒तों के” परियाकन योग्य मनोवत्ति तैयार करने व त्याग वत्ति बढ़ाने के हेतु किया गया हूँ ! कार्य क्रमश: ही-होकर जीवन का स्थायी अंग ঘন सकता है। इसीलिये धावक - की ग्यारह प्रतिमातों व सीढ़ियों का श्तिपादन किया गया রা ^ श्रावक्त की ग्यारह प्रतिमाओं का विधिवत्‌ अभ्यास ही जाने पर ही अनगार वृत्ति अर्थात्‌ मुनि आचार का ग्रहण हो सकता हैं। जब तक लेशमात्र भी परिग्रह हैं संसार की सचित्त ते अचित्त सृप्टि में आसक्तित हँ--तत्र तक मुनिवत्ति का पालन द्वोना अशक््य हैं। मुनि-धर्म, में पृत्रोक्तत पांच अरतों को “महानत्नत? के হু में पालन करना पड़ता हैं । यहां स्ाथक् की अहिसात्मक वृत्ति एवं स्व-पर कल्याणं बृद्धि उसकी परम सीमा पर पहुंच जाती है । वह গণয়াদল के योग्य अपने धरीर को बनाये रखने के लिये समाज से शुद्ध आहार मात्र की भिश्षा छेता हूँ अंपना सारा समय व शक्ति आंत्मकल्याण और विदव-हित क चिन्तन, परिरक्षण गौर प्रवर्तन में छूगाता हैं। मुनि के समस्त मूछ और उत्तर यृणों का अभिप्राय उसे कमश : पुर्णत : अनायक्त-वीतराग और ज्ञानी बनाना है । यही उसकी मुक्ति और सिद्धि है ।




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