जैन सिद्धान्त भास्कर | Jain Siddhant Bhaskar

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Book Image : जैन सिद्धान्त भास्कर  - Jain Siddhant Bhaskar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्रव्य > } जैन-मूतिया 9 इन उल्लेजा से स्पष्ट दे कि जिनमूर्तियों फा प्राचीन स्प वखरष्ित नय धा सौर वद खीकधेसाष् था जैसा कि दिगम्बराप्ताय के शास्वा मं बताया गया दे। यदि इसक विपरीत निनप्रतिमा का स्वल्प घस शर श्रासप्णामे श्रित माना जायते षहा मिनप्रतिमा फी स्थापना फा मदत्य टी न ह जाता दै, क्योकि शास्त्रकार फा वचन है -- कथयन्ति फपायमुक्तिरक्ष्मा, परया शान्ततया भयान्तराता 1 प्रणमामि विशुद्धये जिनाना प्रतिश्याण्यभिन्पमूतिमन्ति 1 ध्रात्‌-- जमं मर्गा का भत कर देन पाठे निना फो मूतिया जञा बिल्कुल उाह्दों फी जैसो योन है अपनी इत्र शाति फे दा यद बतलाती है पि फयायपुक्ति पैते प्रा्तफौ ज्ञाती ६। इसलिये में उड्ें पिशुद्धि प्राप्त फरने क ल्यि प्रणाम फस्ता ह }* श्रय भर फिये, उन मूतियो पर वादि श्द्वार कैसे सभारित ष्टौ सकता दै । श्रत यह माना ठोक है कि प्राचीन मिन प्रतिमा गिराभर्ण श्रौर निव ष्टोती या | श्रतिष्टासासेद्धार' श्रथम उनका उनठेष इत प्रफार ই - भ्णातप्रसक्नमप्यस्यासाप्रस्थापिकार्टरक्‌ । सूप्रणभावरूरूऽ्धविद्धाग रक्तणागिवतम्‌ ॥*३॥ रोठादिदोपनिमक्त प्रातिद्वाया कयत्तयुक्‌ । निर्माप्य रिधिया पीठे निनर्दिव नियशयेत्‌ ॥४॥7 अपावु--“ज्े शात, प्रसस, मध्यध्य, नासप्रस्थित भयिकारा दृप्याएा द्वा।, निम्तका গম লানযামত্ষন सहित हो, अउुप्म बण हो, भोर शुमरत्तणा सद्दित द्दों सोद्र भादि भारद दोपा से रहित हो, प्रशोर यृत्तादि प्रातिदायों से युक्त दे भर दोना तरफ यक्त यत्ती से बेण्लि हो, ऐसा जिपतिमा फो यनपरर दिबि सदित सिंदासन पर दिखनमान ए! यद्‌ दिए प्रतिमा का अदर्श रूप ऐ। ऊिन्तु बहुत सी एसी प्रतिमाय मिलती है जिनम प्रातिहार्य মাহি হজ भी नहों होत। इससे प्रर्द है कि व्ययद्वार में सुतिघा- घुसार লিল্দী লি प्रतिमा फो मनात, जिस्म वातरागरधि, सौम्य भारति भोर गचस्ना होना निचाय्य द! | अर प्रश्न यह है कि ये प्रतिमा: झिस वस्तु को ओर फिन किन महापुरषा यो मनाई ज्ञाता ? तथा उक बनाने फः स्यान पया क्या दे १ इन प्रश्ना के उत्तर म दम “घमुनन्दि भायद्रागरादि” के निन्न श्छोक मिलत ইৎ ০ $ प्रीशसरादार (হন) হত ও २ षमुनन्दि শাহামায় (ব্যান) ছু ছল




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