दशलक्षण धर्म | Dashlakshan Dharm

Dashlakshan Dharm by नरेंद्रकुमार शास्त्री - Narendrakumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ भरर विपुलचिचैरुतमा सा क्षमादो रिषपथ रि सत्सदहायत्वमेति ॥ ८२॥ ( पदह्मनन्दि पृष्ट-४२ ) मूलं--भज्ञानीजनों के द्वारा वध, बन्धन, कोध, हास्य भादि किये जायें, तथापि साधु भ्रपने निमंल भ्ौर गम्भीर चित्त से विकृत नहीं होते, वही उत्तमक्षभा है; रेषौ उत्तमक्षमा मोक्षमागं के पथिक सन्तो को यथायंतया सहायता करने वाली है । उत्तमक्षमा किसके होती है ! उत्तमक्ष मादि जो दश धर्म हैं उतउमे सुख्यतया तो चारित्र काटी प्राराधनदहै, भ्र्थातु उन दस्त धर्मों का पालन मुख्यतः सुनि- दह्षा में ही होता है, श्रावक के गोणरूप से प्रपनी-प्रपनी भूमिका के प्रनुतार अ्रंगत: होता है । मोक्षमा्ग ही दशंत-ज्ञान-चारित्र की एकतारूप है, वह चारित्र दशा में ही होता है; सम्यग्हष्टि जीवों के नियम से चारित्र प्रगट होना ही है, इससे चौथे.पाँचवें गुणस्थान में भी उपचार से मोक्षमागं कहा है। उत्तमक्षमा भ्रर्थात्‌ सम्यकदर्शनसहित क्षमा | उत्त मक्षमा मिथ्यादृष्टि के नहीं होती । उत्तमपमा के अतिरिक्त अन्य चार क्षमाएं क्षमा के पाँच प्रकार हैं, उनमें से चार तो पुण्यबन्ध के कारणरूप हैं भोर पाँचवें क्षमा को 'उत्तमक्षमा' कहा जाता है, वह धर्म है । (१) 'यदि में क्रोध करू गा तो मुझे हानि होगी, यदि में इस समय सहन नहीं करूगा तो भविष्य में मुझे प्रधिक हानि होगी - ऐसे भाव से क्षमा करे तो वह रागरूप क्षमा है। जिसप्रकार निबंल मनुष्य बलवान का विरोध नहीं करता वेत्ते ही-'यदि में क्षमा करू तो मुझे कोई हैरान नहीं करेगा-ऐसे भाव से क्षमा रखना सो बन्ध




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