कहानी की संवेदनशीलता सिहदांत और प्रयोग | Kahani Ki Sanvedansheelta Sinhdant Aur Prayog

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kahani Ki Sanvedansheelta Sinhdant Aur Prayog by भगवानदास वर्मा - Bhagwandas Verma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about भगवानदास वर्मा - Bhagwandas Verma

Add Infomation AboutBhagwandas Verma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
অবহনহীলরা वला-सूजन का मूलतत्त्व। २१ सतुलत निर्माण करने का कार्य केवल त्वासदी ही नहीं करती, अपितु एक घडा, क्रालीन या कोई सुभ।वित हमे इस प्रकार का अनुभव दे सकते हैं किन्तु ऐसी अनुभूति का प्रेरक कारण वस्तु को विशेषता में दूढ़ा गलत होगा । पाठक बी प्रतिक्रिया पर यह निर्भर करता है । स्पष्ट है, इस सिद्धान्त के अनुसार क्लावस्तु पाठक की मनोवृत्तियों मं सतुलन पैदा कराने बा साधन मात्न बन जाती है।अत प्रत्यक्ष क्लाकृति के विश्लेषण की अपेक्षा पाठक की मानसिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण प्रमुख बन जाता है और सारी आलोचना व्यक्तिनिष्ठ बनकर केवल मनोवैज्ञानिक रूप धारण करने लगती है । एक ओर पाठकों के मानस भ्रवृत्तियों का विस्तृत विवे- चन उपस्थित करने बाली रिचर्ड,स प्रणीत आलोचना दूसरी ओर कला वस्तु के साधन-गत अज्भों का सूक्ष्म विश्लेषण भी उपस्थित करती है। कला-सम्प्रे- पण के सिद्धान्त मे भाष सम्बन्धी विचार को उन्होंने बडा महत्व दिया हैं। पर आएचये यह है कि क्लावस्तु का विश्लेषण ओर पाठक के मन का विश्लेषण इन दोनो के बीच अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित नहीं क्रिया गया है। उन्होंने स्वयं अपनी इस असगति का स्पष्टीकरण देते हुए कह्टां है कि अनुभूति बाय मुल्य निर्धारित करन के लिए आलोचना का जो रूप सामने आता है उसे आलोचना वा 'समीक्षात्मक हिस्सा (क्रिटिक्ल पार्ट) कहना चाहिए और जो हूप कबलावस्तु वे साधनों का विवेचन उपस्थित करता है उसे “तत्तात्मक हिस्सा (देकिनिक्ल पार्ट) कहना चाहिए। इन दोनों हिस्सो के आपसी सम्बन्ध को रिचर्डस मात्यता नहीं देते । पाठको की प्रतिक्रिया से निर्मित भाव-पक्ष और कलावस्तु के विश्लेषण से प्राप्त कला-पक्ष की अलग-अलग चर्चायें उपस्थित की गई हैं । एक ओर पाठको की प्रतिक्रिया का पूरा भरोसा करना ओर दूसरी ओर 'कलावस्तु' का पाठक-निरपेक्ष विश्लेषण करना सचमुच सभव भी है ? सही तो यह है कि पाठक की व्यक्तिनिप्ठा में सम्पूर्णत विश्वास करते वाली रिचर्डस प्रणीत सँद्धान्तिक आलोचना इतनी हृद दर्जे की मनोवैज्ञानिक बन गई है कि 'कलावस्तु' की पृथकात्मकता ही नष्ट होती-सी लगती है। पाठकों के मानसिव स्तर पर केन्द्रित आलोचना पाठकों का विभाजन- वर्गीकरण करने लगती है और अपनी मास्यता की समाव्य सीमाओ का निरा- करण करती इई सुयोग्य पाठक की व्याख्या निश्चित करती है ! रिच एक महत्वपूर्ण सवाल खडा करते हैं कि पाठको का वह कौनसा अनुभव सही अनुभव है, जिसे क्लावस्तु में व्यक्त सही अनुभव का पर्याय মালা আম? वह स्वर्थ की एक कविता का उदाहरण लेकर पाठक द्वारा ग्राह्म अनुभवों की




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now