पारिषद निबंधावली भाग 1 | Parishad Nibandhavali Bhag 1

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Parishad Nibandhavali Bhag 1  by धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वतमान-हिन्दी-रल्पंचक , ७ थोड़ा सा बचा-खुचा उसे मिल पाता, प्रथम तो उसे पूछता ही कौन, क्योंकि “नये के नौदाम, पुराने के छे” । हाँ इस प्रौढ़ा या इद्धा ब्रज- भाषा की क॒छ पूछु यदि इस समय होती है तो वस इसी कारण कि इसमें अनुभव एवं ज्ञान विशेष है, इसने अपने समय में अनेकानेक राज- दरबार किये तथा सभा-्समा्जे देखी हैं, अनेक रसिक सज्जनों को सत्संगति की है, और अनेक गुणी, ज्ञानी तथा कला-कुशल श्रीमानों के यहाँ रमी-विरमी है| यदि यह बात न होती, यदि इसमें इतना अनुभव एवं ज्ञान न होता तो कोई इसकी बात भी न पूछुता | मल्ा इसकी खबर इस नवयोवना मुग्धा नायिका-रूपी खड़ी बोली के सामने कौन लेता ! हाँ यह अवश्य कह सकते हैँ कि इस प्रोढा ब्रजमाषा की पग्रौढ़ा कविता-कामिनी को न केवल वही थोड़े से प्रोढ़, वयोबृद्ध , पुराने प्रेम-पटुसरस सज्जन चाहते और सराहते हैं जो इसके लड़कपन के प्रेमी तथा नेमी हैं और जिन पर इसने प्रथम ही से अपना अधिकार जमा रक्‍्खा है, वरन्‌ इस गई बीती हालत में भी इसकी चातुरी एवं रसना माधुरी के बल से बहुतेरे रसिक नवयुवक भी इसकी गली में रस से सिंचकर और खिंचकर आने लगे সিং हें, अस्तु । वास्तव में बात यह है कि ब्रजभाषा, सरस, भावपूण, और मंजु-मधुर, मुक्तक कविता के लिये तथः खडी बली प्रबंधात्मक, सरल एवं लम्बी कविता के लिये अधिक उपयुक्त है | হাহা पर कुतूहल पूणं कौतुक तथा चमत्कारपूर्ण चात॒र्य माघुर्य के साथ जैसा ब्रजभाषा में हुआ है और हो




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