उपमा कालिदासस्य | Upma Kalidasahshya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५4 ^ न त श ध न 4 उपमा कालिदासस्य भ ही है हमारी सम्पूर्ण साहित्य-बेष्टा, बल्कि सम्पूर्ण कला-चेष्टा । साधारण दाब्दों द्वारा श्रप्रकाइय होने के कारण हमारा ससोद्वीप्त या रसाप्लुत चितु- स्पन्दन अ्रनिर्वंचनीय है । इस अनिर्वचनीय को वचनीय करने के लिए प्रयोजन होता है श्रसाधारण भाषा का । इस प्रसंग में यह्‌ लक्षणीय है कि भाषा शब्द का भी तात्पयं है--चित्स्पन्दन का बहिःप्रकारा-वाहनत्न । हमारी भ्रनुभरूति का एक विशेष धर्म एवं स्वरूप धर्म ही यह है कि उसे अभिव्यक्त करना होता है --दूसरे के निकट नहीं तो श्रन्ततः अपने ही निकट--और इसी अ्रभिव्यक्ति- क्रिया में ही मानों श्रनुभूति की परिपूर्णाता है। अनुभूति की प्रभिव्यक्ति ही भाषा-सृष्टि का मूल कारण है ; अयवा यह कहा जा सकता है कि भाषा साधारणतः शअ्रनुभूति की ही अभिव्यक्ति है--चित्स्पन्दन का ही शब्द प्रतीक है। झाज के युग में कोई भी इस पर विश्वास नहीं करता कि संसार में हम लोग जो शअ्रसंख्य प्रचलित भाषाएँ देखते हैं, वे वायु-मण्डल में चारों श्रोर उड़ी- उडी फिरती थीं, भ्रौर मनुष्य ने श्रपने प्रयोजन के अनुसार उन्हें चुन लिया ? मनुष्य आदिम युग से ही अपने को अ्भिव्यक्त करने के लिए नित्य ही भाषा की सृष्टि करता चला भ्रा रहा है। पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य भी शायद किसी दिन केवल ध्वनि के परिमाणु-वेचित्र्य एवं प्रकार-वेचित्र्य द्वारा ही अपने हृदय का भाव अ्रभिव्यक्त करता था। हृदय के भावों में जंसे-जसे सूक्ष्मता, जदिलता एवं गम्भीरता श्राने लगी, ध्वनि के परिमाण-वं चित्य एवं प्रकार-ब चित्र्य में भी वैसे-वैसे ही भ्राने लगी सूक्ष्मता, जटिलता और गंभीरता । क़मशः सृष्टि होने लगी, विशेष-विशेष सुसमृद्ध भाषाओं की । किसी-किसी वयाकरण का विश्वास है कि प्रारम्भ में माष धातु (बोलना) भास्‌ धातु (प्रकट करना) के साथ ही युक्त थी । किन्तु किसी कवि को भाषा के द्वारा जिस अन्तर्लोक का परिचय देना होता है, वह उसका एक विशेष अम्तलोक है---इस अन्तलोंक का स्पन्दन स्वे- साधारण के हृत्स्पन्दन से बहुत कुछ भिन्‍न होता है--इसीलिए साधारण भाषा में उसको वहुन करने की झ्षक्ति भी नहीं होती । कवि का वही विशेष हृत्स्पन्दन अपने वाहन के रूप सें एक विशेष भाषा की सृष्टि करता है । उस विशेष भाषा को ही हम लोगों ने ही नाम दिया है--सालंकार भाषा। हम काव्य के जिन धर्मों को अलंकार नाम से पुकारते हैं, थोड़ा सोचने पर समझ सकेंगे कि वे अलंकार कवि की उस विशेष भाषा के ही धर्म हैं। कवि की काव्यानुभूति स्वानुरूप चित्र, स्वासुरूप वर्णा, स्वानुरूप भकार लेकर ही झात्मा-




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