तीसरा सप्तक | Tisra Saptak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह्‌ मोग भी करनी है कि उनके अस्तित्वके कारण मूल्यवानकी उपेक्षा न हे, असलीको नकलीसे न मापा जाय | ४ शिल्प, तन्त्र या टेकनीकके वारेमें भी दो शब्द कहना आवश्यक है। इन नामोंकी इतनी चर्चा पहले नहों होती थी | पर वह इसीलिए कि इन्हें एक स्थान दे दिया गया था जिसके वारेमें बहस नहीं हो सकती थी । यों साधना” की चर्चा होती थी, ओर साधना अम्यास और मार्जनका ही दूसरा नाम था। बडा कवि वाक्‌सिद्ध/ होता था, और भी बडा कवि रससिद्ध होता था। आज “वाक्शिल्पी कहलाना अधिक गौरबकी बात समभा जा सकता है--क््योंकि शिल्प आज विवादका विषय है। यह चंर्चा उत्तर छायावाद कालसे ही अधिक बढ़ी, जब कि प्रगतिके सम्प्रदायने शिल्प, रूप, तन्त्र आदि सत्को गौण कहकर एक ओर ठेल दिया, और (शिल्पी! एक प्रकारकी गाली समझा जाने लगा | इसी वर्गने नयी काव्य- प्रवृत्िको यह कहकर उडा देना चाहा है किं वद केवल शिल्वका स्प- विधानका आन्दोलन है, निरा फार्मेलिब्म दै। पर साथ-साथ उसने यह भी पाया है कि शिल्प इतना नगण्य नहीं है, कि वस्ठुसे सायाकारकों बिल्कुल अलग किया ही नहीं जा सकता, कि दोनोका सामजस्य अधिक समर्थ और प्रभावशाली होता है, और इसी अनुभवके कारण धीरे-धीरे वह भी मानो पिछवाडेसे आकर शिल्पाग्रही वर्गमें आ मिला है। वल्कि अब यह भी कहा जाने लगा है कि 'प्रयोगवाठके नो विशिष्ट गुना चताये जाते ये ( जैसा बतानेवाले वे ही ये | ) उनका प्रयोगवादने ठेका नहीं लिया है-प्रगतिवाटी कवियोमें मी वे पाये जाते ईै। इससे उलभी परिस्थिति और भ्रामक ह्यो गयी है] बास्तवमे नयी कविताने कभी अपने को शिल्प तक सीमित रखना नहीं चाहा, न वैसी सौसा स्वीकार की। उसपर यह आरोप उतना ही निराधार था जितना दूसरी ओर यह दावा तीसरा सप्तक १७




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