छायावाद का पतन | Chhayavad Ka Patan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'विषय-प्रवेश , मेरे नाविक ! धीरे धीरे । जिस निर्जन मे सागर लहरी । अम्बर के कानों में गहरी-- निश्छुल प्रेम कथा कहती हौ, तज कोलाहल की अबनी रे । किन्तु কষা ই पंक्तियाँ वस्तुतः पल्ायन-भावना से अनुप्राणित हं? ` हम रेखा नही समझते । पंक्तितयों में जो एक अन्तर्हित उल्लास का भाव है वह प्रगतिवादी व्याख्या का विरोधी है। ले च्ल मुके भुलावा देकर' यह इस भावना को व्यवत करने का ढंग मात्र है| कवि को ज्षितिज की एक विशिष्ट छंव्रि--बढां सागर-लद्दरी और अम्बर कां समीपवती दोना, उनका सम्मिलिन-नितान्त श्राकर्मक लगी है श्रोर वह्‌ वहां दर्शक होकर पहुँचना चाहता है। इन पंक्तियों में पलायन की भावना नदी दे इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है क्रि वे पाठक में क्रिसी रकार की उदासीनता श्रथवां उदासी का भाव नदी जगाती' | इसी प्रकार कोलाहल की श्रवनीः सेदूरीया प्रथक्रता कासंकेत यह प्रकट करने का ढंग है कि वह हेय अथवा असुन्दर वस्तु है। अवश्यही कवि को यह अधिकार होना चाहिये कि वह कुछ वस्पुओ्रों को सुन्दर एवं आहय और कुछ को असुन्दुर तथा त्याज़्य घोषित कर सके । । किसी मी निष्यक्त णठक पर छायाध्रादी कान्य पलायनशील होने का प्रभाव उन्न नदी कर्ता 1. वस्तिविक़ता यद नही कि छावा- .घादी कवि सामाजिक यथार्थ से ऊत्र या घत्रराहट महसूस करते हैं, बल्कि यह कि वे वैयक्तिक चेतना से अधिक अनुराग रखते हैं, आत्म- केन्द्रित हैं। रीतिकाल के कवि भी समाज ते तटस्य रदे, पर इसका यह्‌ श्र्थं नही कि वें कस्तु-जगत से घश्रड़ाकर पलायन करना चाहते




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